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आमुख
सकल जैन वाङ्मय का दशमलव वर्गीकरण करके सम्पादक द्वय ने हजारों पारिभाषिक विषयों का चयन किया है तथा इन विषयों पर पाठों का प्राथमिक संकलन भी किया हैं । मूल दशमलव वर्गीकरण से ही पता चलता है कि सम्पदाकों ने कितनी विशाल दृष्टि से विषयों का विभाजन किया है। सम्पूर्ण जैन दशमलव वर्गीकरण की सूची V. D. C. की तरह प्रकाशित कर दी जाय – यह परम वांछनीय है । सम्पादकों से अनुरोध है कि वे इस कार्य को प्रगति दें और इस सूची के निर्माण में अन्य विद्वानों का सहयोग बिना दुविधा के ले जिससे निर्माण कार्य शीघ्रातिशीघ्र सम्पूर्ण हो सके । लेश्याकोश के बाद, जिसकी देश-विदेश में भूरि-भूरि प्रशंसा हुई है, सम्पादकों ने क्रियाकोश का निर्माण किया है । यह ग्रंथ भी सम्पादकों ने उसी लगन तथा तटस्थ शोध वृत्ति से संकलित किया है जिससे उन्होंने लेश्याकोश किया था तथा अपने लेश्याकोश के अनुभवों से इसमें कई विशेषताएँ भी लाये हैं । यथा - ससमास - सप्रत्यय - सविशेषण किया शब्दों की अकारादि क्रम से सूची तथा उनकी समूल पाठ परिभाषाएँ, विभिन्न क्रियाओं तथा उनके भेदों की आगमीय तथा आचार्यगण द्वारा की गई परिभाषाओं का संकलन, इससे सम्पादकगण की परिभाषा कोश निर्माण की कल्पना की पूर्ति स्वतः होती जायगी । क्रिया जैन दर्शन का महत्त्वपूर्ण विषय है। हमारा दैनिक जीवन अच्छी-बुरी क्रियाओं
से संवलित है । क्रियाकुशल श्रावक-श्राविका प्रशस्त क्रियाओं में स्वयं को नियोजित करते हैं तथा उपयोग और विवेक से यत्न- पूर्वक गृहस्थ सांसारिक कार्यों को करते हुए दुष्ट व अप्रशस्त क्रियाओं से अपने को बचाते हैं । सच्चे श्रावकों का क्रियाकुशल होना आवश्यक है क्योंकि क्रियाओं का कुशल ज्ञान हुए बिना अप्रशस्त क्रियाओं से बचना कठिन है । भगवई सूत्र में तुंगिका नगरी के श्रमणोपासकों के गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें क्रिया कुशल का विशेषण भी दिया गया है ।
जगत में, जैन दर्शन के अनुसार, छः द्रव्य हैं। धर्म, अधर्म, आकाश, जीव, पुद्गल तथा काल । इनमें प्रथम तीन निष्क्रिय हैं । ( देखो तत्त्व० ५/६ ) जीव और पुद्गल क्रिया वान है (देखो तत्त्व० ५/६ भाष्य ) तथा जीव और पुद्गल की किया करने में काल सहकारी है । ( देखो तत्त्व० ५/२२ ) निष्क्रिय का अर्थ यहाँ देशान्तर प्राप्ति रूप गति से है या परिणमन से ? धर्म-अधर्म - आकाश परिस्पंदन रूप कोई क्रिया नहीं करते हैं और न
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"Aho Shrutgyanam"