Book Title: Karmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Author(s): Shivsharmsuri, Gunratnasuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
View full book text
________________
→ ]
१. बन्ध - आत्मा और कर्मपरमाणुओं का एकीकरण होना, अर्थात् श्रीरनीरवत् मिलन होने की प्रक्रिया |
२ सत्ता-- आत्मा के साथ बद्ध कर्मों का आत्मा से संयुक्त होकर रहना ।
प्रस्तावना
३. उदय - कर्म का स्वफल प्रदान करने की सक्रिय अवस्था । कर्म पुद्गल अपने स्वभाव के अनुसार फल देकर क्षीण हो जाते है ।
४. उदीरणा - आत्मा के प्रयत्न विशेष से निश्चित समय मर्यादा से पूर्व कर्म का उदय में खिंचकर आ जाना |
५. उद्वर्तना - आत्मा से सम्बद्ध कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को बढाना ।
अपवर्तना -आत्मा से बद्ध कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को घटाना ।
७. संक्रमण - एक प्रकार के प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग वाले कर्मों को दूसरे प्रकार के कर्मों की प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश में बदल जाना ।
८. उपशमना - जिस अवस्था में कर्म का उदय, उदीरणा उद्वर्तना आदि नहीं होते है ।
९. निर्धाचि - उदीरणा और संक्रमण दोनों का अभाव तो होता ही हैं परन्तु इस अवस्था में उद्भवर्तना और अपवर्तना हो सकती हैं।
१०. निकाचना - कर्म की वह अवस्था जिसमें उद्धर्तना अपवर्तना संक्रमण और उदीरणा ये चारों अवस्था असंभव हो जाती है. उसे निकाचना कहते है । निकाचित कर्म को उसी रूप भोगना अनिवार्य होता है ।
११. अबाधा कर्म बंध के बाद वह समय विशेष जिसमें कर्म किसी भी प्रकार का फल नहीं देता है ।
पूर्वधराचार्य शिवशर्मसूरीश्वरजी महाराजा का सक्षिप्त परिचय -
उपशमनाकरण प्रकरण पूर्वाधराचार्य शिवशर्मंसूरीश्वरजी महाराजा ने अग्रायणी नामक द्वितीय पूर्व के आधार पर संकलित कर्म प्रकृति ग्रन्थ का एक विभाग है । पूज्यपाद श्री की जन्म दीक्षा आदि के विषय में विशेष सामग्री उपलब्ध नहीं है, फिर भी नन्दिसूत्र के पाठ आदि के अनुसार आगमोद्धारक पूज्यपाद देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण के पूर्ववर्ति थे । पूज्यपाद पूर्वधराचार्य संभवतः दशपूर्वंधर थे । प्राचीन बन्धशतक - संज्ञक पञ्चम कर्मग्रन्थ पूज्यपाद श्री की कृति मानी जाति है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org