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प्रस्तावना
XXV
की जा सकती है- आत्मा का अव्यवहार-राशि से व्यवहार-राशि में आना ब्रह्म का जीवत्व धारण करना है। क्रमश: सूक्ष्म तथा स्थूल मन द्वारा संशित्व प्राप्त करके कल्पना जाल में आत्मा का विचरण करना संकल्प-विकल्पात्मक ऐन्द्रजालिक सृष्टि है। शुद्ध आत्म-स्वरूप व्यक्त होने पर सांसारिक पर्यायों का नाश होना ही कल्प के अन्त में स्थावर-जङ्गमात्मक जगत् का नाश है आत्मा अपनी सत्ता भूलकर जड़-सत्ता को स्वसत्ता मानती है, जो अहंत्व-ममत्व भावनारूप मोहनीय का उदय और बन्ध का कारण है। यही अहंत्व-ममत्व भावना वैदिक वर्णन-शैली के अनुसार बन्ध-हेतु-भूत दृश्य सत्ता है। उत्पत्ति, वृद्धि, विकास, स्वर्ग, नरक आदि जो जीव की अवस्थाएँ वैदिक ग्रन्थों में वर्णित हैं, वे ही जैन-दृष्टि के अनुसार व्यवहार-राशि-गत जीव के पर्याय हैं। (७) योगवासिष्ठ में स्वरूप-स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूप-भ्रंश को अज्ञानी का लक्षण माना है। जैनशास्त्र में भी सम्यक्-ज्ञान का और मिथ्यादृष्टि का क्रमश: वही स्वरूप बतलाया है। (८) योगवासिष्ठ में जो सम्यक-ज्ञान का लक्षण है, वह जैनशास्त्र के अनुकूल है। (९) जैनशास्त्र में सम्यक्-दर्शन की प्राप्ति (१) स्वभाव और (२) बाह्य निमित्त, इन दो प्रकार से बतलाई है। योगवाशिष्ठ में भी ज्ञान प्राप्ति का वैसा ही क्रम सूचित किया है। (१०) जैनशास्त्र के चौदह
१. उत्पद्यते यो जगति, स एव किल वर्धते। स एव मोक्षमाप्नोति, स्वर्गे वा नरकं च वा।।७।।
(उत्पत्ति-प्रकरण, स. १) २. स्वरूपावस्थितिर्मुक्ति स्तभ्रंशोऽहंत्ववेदनम्। एतत् संक्षेपत: प्रोक्तं तज्ज्ञत्वाज्ञत्वलक्षणम्।।५।।
(वही, स. ११७) ३. अहं ममेति मन्त्रोऽयं मोहस्य जगदान्ध्यकृत्।
अयमेव हि नपूर्वः, प्रतिमन्त्रोऽपि मोहजित्।।१।। (ज्ञानसार, मोहाष्टक) स्वभावलाभसंस्कार कारणं ज्ञानमिष्यते।
ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत् तथा चोक्तं महात्मना।।३।। (ज्ञानसार, ज्ञानाष्टक) ४. अनाद्यन्तावभासात्मा परमात्मेह विद्यते।
इत्येको निश्चय:स्फारः सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः।।२।। (उपशम-प्रकरण, स. ७९) ५. तनिसर्गादधिगमाद् वा। (तत्त्वार्थ-अ. १, सू. ३) ६. “एकस्तावद्गुरुप्रोक्ता दनुष्ठानाच्छनैः शनैः।
जन्मना जन्मभिर्वापि, सिद्धिदः समुदाहृतः।।३।। द्वितीयस्त्वात्मनैवाशु, किंच्व्युित्पन्नचेतसाम्। भवति ज्ञानसम्प्राप्ति राकाशफलपातवत्।।४।। (उपशम-प्रकरण, स. ७)
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