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चौथा कर्मग्रन्थ
मनः पर्यायज्ञानी अन्य सब ज्ञानियों से थोड़े हैं। अवधिज्ञानी मनःपर्यायज्ञानियों से असंख्यगुण हैं। मतिज्ञानी तथा श्रुतज्ञानी आपस में तुल्य हैं। परन्तु अवधिज्ञानियों से विशेषाधिक ही हैं। विभङ्गज्ञानी श्रुतज्ञान वालों से असंख्यगुण हैं ||४०||
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भावार्थ- मानवाले क्रोध आदि अन्य कषायवालों से कम हैं, इसका कारण यह है कि मान की स्थिति क्रोध आदि अन्य कषायों की स्थिति की अपेक्षा अल्प है। क्रोध मान की अपेक्षा अधिक देर तक ठहरता है। इसी से क्रोधवाले मानियों से अधिक हैं । माया की स्थिति क्रोध की स्थिति से अधिक है तथा वह क्रोधियों की अपेक्षा अधिक जीवों में पायी जाती है। इसी से मायावियों को क्रोधियों की अपेक्षा अधिक कहा है। मायावियों से लोभियों को अधिक कहने का कारण यह है कि लोभ का उदय दसवें गुणस्थान पर्यन्त रहता है, पर माया का उदय नौवें गुणस्थान तक ही ।
जो जीव मनुष्य - देहधारी, संयमवाले और अनेक - लब्धि-सम्पन्न हों, उनको ही मन: पर्यायज्ञान होता है। इसी से मन: पर्यायज्ञानी अन्य सब ज्ञानियों से अल्प हैं। सम्यक्त्वी कुछ मनुष्य - तिर्यञ्चों को और सम्यक्त्वी सब देव नारकों को अवधिज्ञान होता है। इसी कारण अवधिज्ञानी मन: पर्यायज्ञानियों से असंख्यगुण हैं। अवधिज्ञानियों के अतिरिक्त सभी सम्यक्त्वी मनुष्य- तिर्यञ्च मति श्रुत ज्ञानवाले हैं। अतएव मति - श्रुत - ज्ञानी अवधिज्ञानियों से कुछ अधिक हैं। मति श्रुत दोनों, नियम से सहचारी हैं, इसी से मति - श्रुत ज्ञानवाले आपस में तुल्य हैं। मतिश्रुत ज्ञानियों से विभङ्गज्ञानियों के असंख्यगुण होने का कारण यह है कि मिथ्यादृष्टिवाले देव-नारक, जो कि विभङ्गज्ञानी ही हैं, वे सम्यक्त्वी जीवों से असंख्यातगुण हैं । ४० ॥
केवलिणो णंतगुणा, मइसुयअन्नाणि णंतगुण तुल्ला । सुहुमा थोवा परिहार संख अहखाय संखगुणा । । ४१ । । केवलिनोऽनन्तगुणाः, मतिश्रुताऽज्ञानिनोऽनन्तगुणास्तुल्याः । सूक्ष्माः स्तोकाः परिहाराः संख्या यथाख्याताः संख्यगुणाः । । ४१ ।
अर्थ - केवलज्ञानी, विभङ्गज्ञानियों से अनन्तगुण हैं। मति - अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी, ये दोनों आपस में तुल्य हैं; परन्तु केवल ज्ञानियों से अनन्तगुण हैं। सूक्ष्मसम्पराय चारित्रवाले अन्य चारित्रवालों से अल्प हैं। परिहारविशुद्ध चारित्रवाले सूक्ष्मसम्पराय चारित्रियों से संख्यातगुण हैं। यथाख्यातचारित्र वाले परिहारविशुद्ध चारित्रों से संख्यातगुण हैं ।
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