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चौथा कर्मग्रन्थ
बहुत विलम्ब नहीं लगता, इस अपेक्षा से तेरहवें - चौदहवें गुणस्थान में भव्यत्व पूर्वाचार्यों ने नहीं माना है।
गोम्मटसार- कर्मकाण्ड की ८२० से ८७५ तक की गाथाओं में स्थानगत तथा पद-गत भङ्ग द्वारा भावों का बहुत विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। एक जीवाश्रित भावों के उत्तर भेद क्षायोपशमिक - पहले दो गुणस्थान में मति- -श्रुत दो या विभङ्गसहित तीन अज्ञान, अचक्षु एक या चक्षु अचक्षु दो दर्शन, दान आदि पाँच लब्धियाँ, तीसरे में दो या तीन ज्ञान, दो या तीन दर्शन, मिश्रदृष्टि, पाँच लब्धियाँ, चौथे में दो या तीन ज्ञान, अपर्याप्त अवस्था में अचक्षु एक या अवधिसहित दो दर्शन और पर्याप्त अवस्था में दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व, पाँच लब्धियाँ पाँचवे में दो या तीन ज्ञान, दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व देशविरति, पाँच लब्धियाँ, छठे सातवें में दो तीन या मन: पर्यायपर्यन्त चार ज्ञान, दो या तीन दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, पाँच लब्धियाँ, आठवें, नौवें और दसवें में सम्यक्त्व को छोड़ छठे और सातवें गुणस्थानवाले सब क्षायोपशमिक भाव । ग्यारहवें - बारहवें में चारित्र को छोड़ दसवें गुणस्थानवाले सब भाव।
औदयिक - पहले गुणस्थान में अज्ञान, असिद्धत्व, असंयम, एक लेश्या, एक कषाय, एक गति, एक वेद और मिथ्यात्व, दूसरे में मिथ्यात्व को छोड़ पहले गुणस्थान वाले सब औदयिक, तीसरे, चौथे और पाँचवें में अज्ञान को छोड़ दूसरे वाले सब; छठे से लेकर नौवें तक में असंयम के अतिरिक्त पाँचवें वाले सब; दसवें में वेद के अतिरिक्त नौवें वाले सब; ग्यारहवें - बारहवें में कषाय के अतिरिक्त दसवें वाले सब; तेरहवें में असिद्धत्व, लेश्या और गति; चौदहवें में गति और असिद्धत्व।
क्षायिक - चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक में सम्यक्त्व; बारहवें में सम्यक्त्व और चारित्र दो और तेरहवें चौदहवें में― नौ क्षायिकभाव।
औपशमिक - चौथे से आठवें तक सम्यक्त्व; नौवें से ग्यारहवें तक सम्यक्त्व और चारित्र ।
पारिणामिक - पहले में तीनों; दूसरे से बारहवें तक में जीवत्व और भव्यत्व दो; तेरहवें और चौदहवें में एक जीवत्व।
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