Book Title: Karmagrantha Part 4 Shadshitik
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 243
________________ १९० चौथा कर्मग्रन्थ औपशमिक चारित्र माना है, पर क्षपकश्रेणि वाले चारों गुणस्थान के चारित्र के सम्बन्ध में कुछ उल्लेख नहीं किया है। ग्यारहवें गुणस्थान में सम्पूर्ण मोहनीय का उपशम हो जाने के कारण सिर्फ औपशमिकचारित्र है। नौवें और दसवें गुणस्थान में औपशमिक - क्षायोपशमिक दो चारित्र हैं; क्योंकि इन दो गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय की कुछ प्रकृतियाँ उपशान्त होती है, सब नहीं। उपशान्त प्रकृतियों की अपेक्षा से औपशमिक और अनुपशान्त प्रकृतियों की अपेक्षा से क्षायोपशमिक - चारित्र समझना चाहिये । यद्यपि वह बात इस प्रकार स्पष्टता से नहीं कही गई है परन्तु पञ्च द्वा. ३ की २५ वीं गाथा की टीका देखने से इस विषय में कुछ भी संदेह नहीं रहता, क्योंकि उसमें सूक्ष्मसंपराय चारित्र को, जो दसवें गुणस्थान में ही होता है, क्षायोपशमिक कहा गया है। उपशमश्रेणि वाले आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थान में चारित्रमोहनीय के उपशम का आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का उपशम होने के कारण औपशमिक चारित्र, जैसे पञ्चसंग्रह - टीका में माना गया है, वैसे ही क्षपकश्रेणि वाले आठवें आदि तीनों गुणस्थानों में चारित्रमोहनीय के क्षय का आरम्भ या कुछ प्रकृतियों का क्षय होने के कारण क्षायिकचारित्र मानने में कोई विरोध नहीं दीख पड़ता । गोम्मटसार में उपशमश्रेणि वाले आठवें आदि चारों गुणस्थान में चारित्र औपशमिक ही माना है और क्षायोपशमिक का स्पष्ट निषेध किया है। इसी तरह क्षपकश्रेणिवाले चार गुणस्थानों में क्षायिकचारित्र ही मानकर क्षायोपशमिक का निषेध किया है। यह बात कर्मकाण्ड की ८४५ और ८४६वीं गाथाओं के देखने से स्पष्ट हो जाती है। परिशिष्ट 'ब' पृ. २०७, पङ्कि ३ के 'भावार्थ' शब्द पर यह विचार एक जीव में किसी विवक्षित समय में पाये जानेवाले भावों का है। एक जीव में भिन्न-भिन्न समय में पाये जाने वाले भाव और अनेक जीव में एक समय में या भिन्न-भिन्न समय में पाये जानेवाले भाव प्रसङ्गवश लिखे जाते हैं। पहले तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणमिक, ये तीन भाव चौथे से ग्यारहवें तक आठ गुणस्थानों में पाँचों भाव बारहवें गुणस्थान में औपशमिक के अतिरिक्त चार भाव और तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान औपशमिक-क्षायोपशमिक के अतिरिक्त तीन भाव होते हैं। में For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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