Book Title: Karmagrantha Part 4 Shadshitik
Author(s): Devendrasuri, Sukhlal Sanghavi
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 225
________________ १७२ चौथा कर्मग्रन्थ दो विग्रहवाली गति, जो तीन समय की है और तीन विग्रहवाली गति, जो चार समय की है, उसमें प्रथम तथा अन्तिम समय में आहारकत्व होने पर भी बीच के समय में अनाहारक - अवस्था पायी जाती है। अर्थात् द्वि-विग्रहगति के मध्य में एक समय तक और त्रि - विग्रहगति में प्रथम तथा अन्तिम समय को छोड़, बीच के दो समय पर्यन्त अनाहारक स्थिति रहती है। व्यवहारनय का यह मत कि विग्रह की अपेक्षा अनाहारकत्व का समय एक कम ही होता है, तत्त्वार्थअध्याय २ के ३१वें सूत्र में तथा उसके भाष्य और टीका में निर्दिष्ट है। साथ ही टीका में व्यवहारनय के अनुसार उपर्युक्त पाँच समय- परिमाण चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर को लेकर तीन समय का अनाहारकत्व भी बतलाया गया है। सारांश, व्यवहारनय की अपेक्षा से तीन समय का अनाहारकत्व, चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर से ही घट सकता है, अन्यथा नहीं। निश्चयदृष्टि के अनुसार यह बात नहीं है। उसके अनुसार तो जितने विग्रह उतने ही समय अनाहारकत्व के होते हैं। अतएव उस दृष्टि के अनुसार एक विग्रहवाली वक्र-गति में एक समय, दो विग्रहवाली गति में दो समय और तीन विग्रहवाली गति में तीन समय अनाहारकत्व के समझने चाहिये। यह बात दिगम्बर- प्रसिद्ध तत्त्वार्थ - अ. २ के ३० वें सूत्र तथा उसकी सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिक- टीका में है। श्वेताम्बर -ग्रन्थों में चतुर्विग्रहवती गति के मतान्तर का उल्लेख है, उसको लेकर निश्चयदृष्टि से विचार किया जाय तो अनाहारकत्व के चार समय भी कहे जा सकते हैं। सारांश, श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थ भाष्य आदि में एक या दो समय के अनाहारकत्व का जो उल्लेख है, वह व्यवहारदृष्टि से और दिगम्बरीय तत्त्वार्थ आदि ग्रन्थों में जो एक, दो या तीन समय के अनाहारकत्व उल्लेख है, वह निश्चयदृष्टि से । अतएव अनाहारकत्व के काल-मान के विषय में दोनों सम्प्रदाय में वास्तविक विरोध को अवकाश ही नहीं है। प्रसङ्गवश यह बात जानने योग्य है कि पूर्व - शरीर का परित्याग, पर- भव की आयु का उदय और गति (चाहे ऋजु हो या वक्र), ये तीनों एक समय में होते हैं। विग्रहगति के दूसरे समय में पर-भव की आयु के उदय का कथन है, सो स्थूल व्यवहारनय की अपेक्षा से - पूर्व-भव का अन्तिम समय, जिसमें जीव विग्रहगति के अभिमुख हो जाता है, उसको उपचार से विग्रहगति का प्रथम समय मानकर - समझना चाहिये । - बृहत्संग्रहणी, गा. ३२५, मलयगिरि -टीका। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290