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चौथा कर्मग्रन्थ गुणस्थानों का सम्भव दिखाया, सो करण-अपर्याप्त में; क्योंकि लब्धि अपर्याप्त में तो पहले के अतिरिक्त किसी गुणस्थान की योग्यता ही नहीं होती।
पर्याप्ति संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में सब गुणस्थान माने जाते हैं। इसका कारण यह है कि गर्भज मनुष्य, जिसमें सब प्रकार के शुभाशुभ तथा शुद्धाशुद्ध परिणामों की योग्यता होने से चौदहों गुणस्थान पाये जा सकते हैं, वे संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय ही हैं।
यह शंका हो सकती है कि संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में पहले बारह गुणस्थान होते हैं, पर तेरहवाँ-चौदहवाँ, ये दो गुणस्थान नहीं होते। क्योंकि इन दो, गुणस्थानों के समय संज्ञित्व का अभाव हो जाता है। उस समय क्षायिक ज्ञान होने के कारण क्षायोपशमिक ज्ञानात्मक संज्ञा, जिसे 'भावमन' भी कहते हैं, नहीं होती। इस शङ्का का समाधान इतना ही है कि संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में तेरहवें-चौदहवें गुणस्थान का जो कथन है सो द्रव्यमन के सम्बन्ध से संज्ञित्व का व्यवहार अङ्गीकार करके; क्योंकि भावमन के सम्बन्ध से जो संज्ञी हैं, उनमें बारह ही गुणस्थान होते हैं।
करण-अपर्याप्त) संज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में पहला, दूसरा चौथा, छठा और तेरहवाँ ये पाँच गुणस्थान कहे गये हैं। इस कर्मग्रन्थ में करण-अपर्याप्त संज्ञि पञ्चेन्द्रिय में तीन गुणस्थानों का कथन है, सो उत्पत्ति कालीन अपर्याप्त-अवस्था को लेकर। गोम्मटसार में पाँच गुणस्थानों का कथन है, सो उत्पत्तिकालीन, लब्धिकालीन उभय अपर्याप्त-अवस्था को लेकर। इस तरह ये दोनों कथन अपेक्षाकृत होने से आपस में विरुद्ध नहीं हैं। लब्धिकालीन अपर्याप्त-अवस्था को लेकर संज्ञी में गुणस्थान का विचार करना हो तो पाँचवाँ गुणस्थान भी गिनना चाहिये, क्योंकि उस गुणस्थान में वैक्रियलब्धि से वैक्रियशरीर रचे जाने के समय अपर्याप्त-अवस्था पायी जाती है। यही बात सप्ततिकाचूर्णि के निम्नलिखित पाठ से स्पष्ट होती है। 'मणकरणं केवलिणो वि अत्थि, तेन संनिणो भन्नति, मनोविन्नाणं पडुच्च ते संनिणो न भवंति ति।' केवली को भी द्रव्यमन होता है, इससे वे संज्ञी कहे जाते हैं, परन्तु मनोज्ञान की अपेक्षा से वे संज्ञी नहीं हैं। केवली-अवस्था में द्रव्यमन के सम्बन्ध से संज्ञित्व का व्यवहार 'गोम्मटसारजीवकाण्ड' में भी माना गया है। यथा
'मणसहियाणं वयणं, दिटुं तप्पुव्वमिदि सजोगम्हि। उत्तो मणोवयारे,-णिंदियणाणेण हीणम्हि।। २२७।। अंगोवंगुदयादो, दव्वमणटुं जिणिंदचंदम्हि।
मणवग्गणखंधाणं, आगमणादो दुमणजोगो।। २२८।। सयोगी केवली गुणस्थान में न होने पर भी वचन होने के कारण उपचार से मन माना जाता है, उपचार का कारण यह है कि पहले के गुणस्थान में मनवालों को वचन देखा जाता है।।२२७॥
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