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चौथा कर्मग्रन्थ
केवलिसमुद्धात के मध्यवर्ती छह समयों में नहीं होता। औदारिक मिश्रकाययोग, केवलिसमुद्धात के दूसरे, छठे और सातवें समय में तथा कार्मण काययोग तीसरे, चौथे और पाँचवें समय में होता है। दो वचनयोग, देशना देने के समय होते हैं और दो मनोयोग किसी के प्रश्न का मन से उत्तर देने के समय। मन से उत्तर देने का मतलब यह है कि जब कोई अनुत्तरविमानवासी देव या मनः पर्यायज्ञानी अपने स्थान में रहकर मन से केवली को प्रश्न करते हैं, तब उनके प्रश्न को केवलज्ञान से जानकर केवली भगवान् उसका उत्तर मन से ही देते हैं। अर्थात् मनोद्रव्य को ग्रहण कर उसकी ऐसी रचना करते हैं कि जिसको अवधिज्ञान या मन:पर्यायज्ञान के द्वारा देखकर प्रश्नकर्ता केवली भगवान के दिये हुए उत्तर को अनुमान द्वारा जान लेते हैं। यद्यपि मनोद्रव्य बहुत सूक्ष्म है तथापि अवधिज्ञान और मन:पर्यायज्ञान में उसका प्रत्यक्ष ज्ञान कर लेने की शक्ति है। जैसे कोई मानस शास्त्रज्ञ किसी के चेहरे पर होनेवाले सूक्ष्म परिवर्तनों को देखकर उसके मनोगत-भाव को अनुमान द्वारा जान लेता है, वैसे ही अवधिज्ञानी या मन:पर्यायज्ञानी मनोद्रव्य की रचना को साक्षात् देखकर अनुमान द्वारा यह जान लेते हैं कि इस प्रकार की मनोरचना के द्वारा अमुक अर्थ का ही चिन्तन किया हुआ होना चाहिये।॥२८॥
मणवइउरला परिहा,-रि सुहुमि नव ते उ मीसि सविउव्वा। देसे सविउव्विदुगा, सकम्मुरलमीस अहखाए।।२९।।
मनोवच औदारिकाणि परिहारे सूक्ष्मे नव ते तु मिश्रे सवैक्रियाः। देशे सवैक्रियद्विकाः सकार्मणौदारिकमिश्राः यथाख्याते।।२९।।
अर्थ-परिहारविशुद्ध और सूक्ष्मसम्पराय चारित्र में मन के चार, वचन के चार और एक औदारिक, ये नौ योग होते हैं। मिश्र में (सम्यग्मिथ्यादृष्टि में) उक्त नौ तथा एक वैक्रिय, कुल दस योग होते हैं। देशविरति में उक्त नौ तथा वैक्रियद्विक, कुल ग्यारह योग होते हैं। यथाख्यातचारित्र में चार मन के, चार वचन के, कार्मण और औदारिक-द्विक, ये ग्यारह योग होते हैं॥२९॥
भावार्थ-कार्मण और औदारिकमिश्र, ये दो योग छद्मस्थ के लिये अपर्याप्त-अवस्था-भावी हैं; किन्त चारित्र कोई भी अपर्याप्त अवस्था में नहीं होता। वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग वैक्रियलब्धि का प्रयोग करनेवाले ही मनुष्य
२. गोम्मटसार-जीवकाण्ड की २२८वीं गाथा में भी केवली को द्रव्यमन का सम्बन्ध
माना है।
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