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चौथा कर्मग्रन्थ पर्याप्तचतुरिन्द्रियासंज्ञिनोः, द्विदर्शद्व्यज्ञानं दशसु चक्षुर्विना।
संज्ञिन्यपर्याप्ते मनोज्ञानचक्षुः केवलद्विकविहीनाः।।६।।
अर्थ-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में चक्षु-अचक्षु दो दर्शनं और मति-श्रुत दो अज्ञान, कुल चार उपयोग होते हैं। सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, बादर-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय, ये चारों पर्याप्त तथा अपर्याप्त और अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन दस प्रकार के जीवों में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और अचक्षुर्दर्शन, ये तीन उपयोग होते हैं। अपर्याप्त संज्ञि-पञ्चेन्द्रियों में मनःपर्ययज्ञान, चक्षुदर्शन, केवलज्ञान, केवलदर्शन, इन चार को छोड़ शेष आठ (मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधि दर्शन, मति-अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभङ्गज्ञान और अचक्षुदर्शन) उपयोग होते हैं।।६।।
भावार्थ-पर्याप्त चतुरिन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय में चतुर्दर्शन आदि उपर्युक्त चार ही उपयोग होते हैं, क्योंकि आवरण की घनिष्ठता और पहला ही गुणस्थान होने के कारण, उनमें चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन के अतिरिक्त अन्य सामान्य उपयोग तथा मति-अज्ञान, श्रृत-अज्ञान के अतिरिक्त अन्य विशेष उपयोग नहीं होते।
सूक्ष्म-एकेन्द्रिय' आदि उपर्युक्त दस प्रकार के जीवों में तीन उपयोग कहे गये हैं, सो कार्मग्रन्थिक मत के अनुसार, सैद्धान्तिक मत के अनुसार नहीं।
१. देखिये, परिशिष्ट 'छ'। २. इसका खुलासा यों है:
___ यद्यपि बादर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, चतुरिन्दिय और असंज्ञि-पञ्चेन्द्रिय, इन पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवों में कार्मग्रन्थिक विद्वान् पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान मानते हैं। देखिये, आगे गा. ४५वीं। तथापि वे दूसरे गुणस्थानक समय मति आदि को, ज्ञानरूप न मानकर अज्ञानरूपा ही मान लेते हैं। देखिये, आगे गा. २१वीं। इसलिये, उनके मतानुसार पर्याप्त-अपर्याप्त सूक्ष्म-एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर-एकेन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय और पर्याप्त त्रीन्द्रिय, इन पहले गुणस्थान-वाले पाँच जीवस्थानों के समान, बादर एकेन्द्रिय आदि उक्त पाँच प्रकार के अपर्याप्त जीवस्थानों में भी, जिनमें दो गुणस्थानों का सम्भव है, अचक्षुर्दर्शन, मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान, ये तीन उपयोग ही माने जाते हैं।
परन्तु सैद्धान्तिक विद्वानों का मन्तव्य कुछ भिन्न है। वे कहते हैं कि किसी प्रकार के एकेन्द्रिय मे–चाहे पर्याप्त हो या अपर्याप्त, सूक्ष्म हो या बादर- पहले के सिवाय अन्य गुणस्थान होता हो नहीं। देखिये, गा. ४९वीं। पर द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय
और असंज्ञि-पश्चेन्द्रिय, इन चार अपर्याप्त जीवस्थानों में पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान होते हैं। साथ ही सैद्धान्तिक विद्वान्, दूसरे गुणस्थान के समय मति आदि
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