Book Title: Kaise Khole Kismat ke Tale
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 103
________________ 1 याद रखिए : अपनी ओर से दूसरों के प्रति विनम्र होना, उनको भी अपने प्रति विनम्र होने का रास्ता खोलना है। बड़े बुजुर्ग हों तो पाँव छू लें। बराबर का है तो हाथ मिला लें । अपरिचित हैं तो दूर से ही सही, खड़े-खड़े हाथ जोड़ लें । अगर बड़े बुजुर्ग हैं तो पाँव छूकर बाद में बात कीजिएगा। इसमें शरम मत रखिएगा । आजकल लोगों को पाँव छूकर प्रणाम करने में शरम आती है । जाति आपकी कोई भी हो, गोत्र आपका कोई भी हो, लेकिन भीतर से सारे लोग शर्माजी बन गए हैं, सब शरमाते हैं। बड़ों के पाँव छूने में काहे की शरम भाई । गुटखा खाते शरम नहीं आती । उल्ले-सीधे काम करने में शरम नहीं आती और बड़ों के पाँव छूते शरम आती है? शरम न करें, पाँव छूएँ, आगे बढ़ें, नीचे झुकें। नीचे झुकेंगे तो आपके माथे पर, आपकी पीठ पर अगले का हाथ आयेगा, आशीर्वाद मिलेगा । जिंदगी में दुआओं की दौलत बटोरनी चाहिए । अरे, अगर किसी हरिजन से भी कहोगे राम-राम तो वह भी कहेगा - भाई साहब ! सुखी रहो। किसी को भी अगर राम-राम करोगे, प्रणाम करोगे, उसका परिणाम पॉजिटिव ही मिलना है। प्रणाम दूसरे के प्रति पॉजिटिव होने का प्रमाण है । प्रणाम का परिणाम सदा आशीर्वाद ही होता है । आपके प्रणाम के बदले सामने वाला भी आपके प्रति प्रसन्नचित्त और पॉजिटिव बन चुका है। कहते हैं महाभारत के युद्ध में, जब युद्ध की घोषणा हो गई, शंखनाद हो गया, युधिष्ठिर ने कहा – ठहरिये, मेरे रथ को बीच रण प्रांगण में ले जाइए और जैसे ही बीच में ले जाया गया उन्होंने अपनी जूती खोली, हथियार रखे और शत्रु सेना की तरफ नंगे पैर निकल पड़े। पांडवों में खलबली मच गई। हमारे राजा नंगे पैर शस्त्र रखकर क्या आत्मसमर्पण करने जा रहे हैं ? उधर दुर्योधन भी चौंक पड़ा कि यह युधिष्ठिर क्या कर रहा है? सामने आ रहा है, क्या घबरा गया? युद्ध करने से पहले ही हिल गया ! शकुनि ने चुटकी बजाई कि अभी देखते जाओ मेरे खेल में आगे क्या-क्या होता है ! दाद दूँगा युधिष्ठिर को कि वह आगे बढ़ता गया और सबसे पहले भीष्म पितामह के पास पहुँचा। शत्रु-सेना सामने खड़ी थी फिर भी युधिष्ठिर निहत्था भीष्म पितामह के पास पहुँचा। दोनों घुटने टिकाये, सिर नँवाया, भीष्म पितामह को प्रणाम समर्पित किया और युद्ध करने की अनुमति चाही । पितामह युधिष्ठिर की विनम्रता और सद्व्यवहार से अभिभूत हो उठे। हाथ अपने आप ऊपर उठा और प्रसन्नचित्त होकर कहा - विजयी भव । 104 | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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