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होने का महत्त्व छिपा हुआ है। अगर घर में दादाजी कोई भी चीज़ लेकर आये हैं तो पहले खुद मत खाओ। आप केला लेकर आए हैं खुद ही अकेले उठाकर छीलना शुरू मत करो, पोता पास में खड़ा है, पहले आधा केला उधर बढ़ा दो और फिर खुद खाओ। खुद खाया सुबह गोबर हो जाता है, औरों को खिलाकर खाया हआ प्रसाद बन जाता है। औरों को खिलाने की आदत होनी चाहिए। अदब, बोलने में भी और व्यवहार में भी। सव्यवहार के नाते भी दूसरों को खिलाइए। अगर दो रोटी है और सामने चार जनें हैं तब भी कहूँगा मिल-बाँटकर खाओ, हिलमिलकर खाओ। रोटी दो हैं तो क्या हुआ और खाने वाले चार हैं तो क्या, आधी-आधी ही सही लेकिन सब मिल बाँटकर खायें। अपनी चीजें, मात्र अपनी चीजें नहीं हैं, सबै भूमि गोपाल की।' सब में बाँटो, बाँट कर खाना सीखो।
एक बच्ची थी जो हमारे पास जब भी आती तो पहले हमें धोक लगाती और धोक लगाने के बाद जितने भी पास में बैठे रहते उन सबके भी पाँव छूती थी। मैंने उस बच्ची से कहा – बेटा, आप इतने रेस्पेक्ट से पेश आती हैं, सबको आप बोलती हैं, अगर आपको कोई टॉफी दे दे तो आप पहले पास में बैठे हुए बच्चे को खिलाती हैं फिर आप खाती हैं, आखिर इसका कारण क्या है? वह बोली - गुरुजी, इसमें कोई खास बात नहीं है। मेरे घर में सभी लोग इतने ही आदर से बोलते हैं। सब ऐसे ही हैं। घर का, परिवार का यह संस्कार हमारे भीतर रहना चाहिए। हम जब भी बोलें - विथ रेस्पेक्ट, अदब से बोलें।
दूसरा स्टेप : जब भी बोलें पूरे आत्म-विश्वास के साथ बोलें। बगैर किसी डर या झिझक के अपनी बात को कहना ही आत्म-विश्वास है। आत्म-विश्वास जगाने के लिए शोले का डायलॉग याद रखें - जो डर गया, सो मर गया। मैं महाराज बना तो सब कुछ छोड़कर आ गया। फिल्में उसके बाद नहीं देखीं, पर उस फिल्म का डायलॉग ज़रूर याद रह गया - जो डर गया, सो मर गया। बड़ा काम आता है यह डायलॉग। मेरे तो बहुत काम आया है। आप भी याद रखें - शायद आपके भी काम आ जाए। बोलने में भी यह डायलॉग उपयोगी है, बोलने में भी आप पूरे आत्म-विश्वास के साथ बोलिये। पूरे जांबाजी के साथ बोलिये। अगर डर-डर कर बोलेंगे तो भीतर से जबान ही नहीं निकलेगी। ऐसा नहीं है कि हम गूंगे हैं, पर अन्दर से बात निकलती नहीं है, क्योंकि डरा हुआ आदमी अन्दर से निकालेगा क्या? तो जब भी बोलो पूरे आत्म-विश्वास से बोलो। सोचो कि ईश्वर मेरे साथ है, मेरा गुरु मेरे साथ है। मुझे घबराना नहीं चाहिए, भयभीत नहीं
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