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अपनी बंदूक किसके ऊपर रखेगा? आत्मसमर्पण की बात आ गई। राज्य में ढिंढोरा पीट दिया गया कि आत्मसमर्पण कल सुबह होगा। तभी साँझ को एक संत आए। संत ने राजमहल में खड़े होकर कहा – महाराज, यह मैं क्या सुन रहा हूँ कि आप आत्मसमर्पण कर रहे हैं? मरने से पहले मर रहे हैं आप! राजा ने कहा - आप कहना क्या चाहते हैं? संत ने कहा - राजन् ! मैं अभी-अभी देवी के मंदिर से आ रहा हूँ। देवी ने मुझे आशीर्वाद दिया है और कहा कि जा, राजा से कह दे कि मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। तू लड़ाई कर, युद्ध में विजय तेरी होगी!
राजा ने सोचा कि यह देवी के आशीर्वाद का प्रसंग कहाँ से आ गया? राजा संत से बोला - क्या सबूत है तुम्हारे पास कि तुम देवी का आशीर्वाद लेकर आये हो, कहीं मैं मारा गया तो? कहीं यह सेना पीछे हट गई तो? राजा ने जैसे ही आशंका जताई कि सेनापति ने भी अपनी तरफ से टिप्पणी की। संत ने कहा - ठहरो, हम अभी सिक्का उछाल कर देख लेते हैं। अगर सिक्का सीधा गिरा तो तुम जीतोगे और अगर सिक्का उल्टा गिरा तो तुम हारोगे। बात पक्की हो गई। संत ने हाथ सीधा जेब में डाला और सिक्का निकाला। सिक्का आसमान में उछाला। सिक्का जैसे ही ज़मीन पर गिरा तो संत ने ताली बजा दी और कहा कि देखो, सिक्का सीधा गिरा है। सेनापति ने कहा - भले ही सिक्का सीधा गिरा हो पर मैं सहमति नहीं रखता उस सामने वाले से मुकाबला करने के लिए। संत ने गरजकर कहा - हट रे सेनापति ! बुजदिल कहीं का। अरे तेरे भरोसे कोई युद्ध जीते जाएँगे? कायरता और नपुंसकता के भरोसे कोई लड़ाई जीती जा सकती है? अलग हट । मैं बनता हूँ सेनापति, आओ हम लोग युद्ध के लिए रवाना होते हैं। राजा ने पूछा - तुम तो संत हो, तुमने तलवार कभी हाथ में उठाई भी है? संत ने कहा - इसका निर्णय तो युद्ध के मैदान में ही होगा।
कहते हैं, संत को सेनापति बना दिया गया संत चढ़ गया रथ पर। गुल्लीडंडा भी खेलना आता नहीं होगा, पर जोश जगा दिया सेना में और निकल पड़ी सेना कि देवी का आशीर्वाद साथ में है। अब तक तो सेनापति की बुज़दिली साथ में थी। सेना रणक्षेत्र में पहँची भी न थी कि संत ने कहा- ठहरो, मैं देवी के मंदिर में यज्ञ कर लेता हूँ, पूजा अनुष्ठान कर लेता हूँ और फिर तुम लोगों को बता देता हूँ कि यहाँ पर भी देवी का क्या आशीर्वाद है? बस दो घंटे उसने यज्ञ किया। फिर उसने वही सिक्का निकाला। सेना पूरी उत्सुकता से तैयार हो गई, सिक्का उछाला गया और जैसे ही सिक्का आकर गिरा, सिक्का
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