Book Title: Kaise Jiye Madhur Jivan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 50
________________ 1 और करुणा के मार्ग को प्रसारित करने के लिए अंग- बंग देशों की यात्रा पर जाना चाहता हूँ । आप मुझे आज्ञा प्रदान करें ।' सद्गुरु ने कहा, 'वत्स! वहाँ के लोग बड़े क्रूर, निर्दयी और निष्ठुर हैं । वे लोग आदमी के साथ जानवर जैसा व्यवहार करते हैं । तुम किसी अन्य क्षेत्र में जाओं ।' शिष्य बोला, 'जहाँ प्रेम और शान्ति न हो, वहीं अहिंसा और करुणा की स्थापना का औचित्य है । आप मुझे आज्ञा प्रदान करें ।' गुरु ने शिष्य को ध्यान से देखा और कहा, 'वत्स ! तब जाने से पहले मुझे मेरे एक प्रश्न का जवाब देते जाओ । मेरा प्रश्न यह है कि, I यदि वहाँ के लोगों ने तुम्हें गालियाँ दीं, तो तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी ?” शिष्य ने बड़े संयत स्वर में कहा, 'गुरुदेव ! मैं यह सोचूँगा कि यहाँ के लोग तो बड़े ही भले हैं। केवल गालियाँ ही देते हैं, लातें-घूसे और थप्पड़ तो नहीं मारते।' तब गुरु ने कहा, 'अगर उन्होंने लातें - घूसे और थप्पड़ ही मार दिए तब?” शिष्य ने कहा, 'गुरुदेव ! तब मैं यह सोचूँगा कि यहाँ के लोग इतने सज्जन तो हैं कि इन्होंने मुझे लाठियों से नहीं पीटा।' गुरु ने कहा, ‘तब मेरा अगला सवाल यह है कि यदि उन्होंने तुम्हें लाठियों से ही पीट दिया तब तुम्हारी क्या प्रतिक्रिया होगी ?” शिष्य बोला, 'प्रभु ! तब मैं यह सोचूँगा कि इनमें कम-से-कम इतनी मानवता तो है कि इन्होंने मुझ पर तलवार या कटार नहीं चलाई।' गुरु बोले, 'जाने से पहले मेरे अन्तिम सवाल का जवाब देते जाओ । मेरा सवाल यह है कि यदि उन्होंने तुम पर तलवार या कटार चलाकर तुम्हारे प्राण ही ले लेना चाहा, तो तुम्हारे मन में क्या विचार उठेंगे?' शिष्य बोला, 'सद्गुरु! मैं इसी भावदशा के साथ जा रहा हूँ कि अहिंसा, प्रेम और शान्ति के मार्ग का प्रचार-प्रसार हो । यदि मानवता और धर्म की स्थापना के लिए मुझे अपनी कुर्बानी भी देनी पड़े तो निश्चित रूप से मैं अपने को सौभाग्यशाली समझँगा ।' गुरु ने कहा, ' वत्स! तुम निश्चित रूप से जाओ। तुम जैसे व्यवस्थित करें स्वयं को ४द Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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