Book Title: Kaise Jiye Madhur Jivan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ है और सेंट मेरिनो अभी भी काफी दूर है। मेरिनो नगर की रोशनियाँ, वहाँ जलते हुए फानूस साफ-साफ दिखाई दे रहे हैं। लेकिन वहाँ तक पहुँचने में अभी भी रात तो काफी गहरी हो जाएगी। ___ तभी चलते-चलते फ्रांसिस ने अपने शिष्य से पूछा, 'लियो, क्या तुम्हें पता है कि वास्तविक संत कौन है?' शिष्य गुरु के सामने क्या कहे! गुरु ने कहा, 'लियो, वह व्यक्ति वास्तविक संत नहीं है जो अंधे को आँख दे, मुर्दे को जिंदा कर दे तथा किसी रुग्ण को स्वस्थ कर दे।' लियो चौंका, क्योंकि उसे लगा कि यह तो संत का धर्म है। लियो कुछ बोले, उससे पहले ही फ्रांसिस ने कहा, 'लियो, वह व्यक्ति भी वास्तविक संत नहीं है जो किन्हीं पेड़-पौधों की भाषा समझता हो या जो दूसरों को ज्ञान देता हो।' फ्रांसिस कुछ मौन हो गए । चलते-चलते उन्होंने कहा, 'वह व्यक्ति भी वास्तविक संत नहीं है जिसने अपना सारा घर-बार छोड़ दिया है।' इस बार लियो चौंका और कहा, 'प्रभो, जितने सारे गुण आपने बताये हैं, वे सारे गुण मेरी दृष्टि में संत के ही गुण हैं। और आप कहते हैं कि वह व्यक्ति वास्तविक संत नहीं है तो मैं पूछना चाहूँगा कि वास्तविक संत कौन है?' ___ फ्रांसिस ने कहा, 'लियो, तुम्हें पता है कि अभी हम सेण्ट मेरिनो की तरफ जा रहे हैं। तुम्हें पता है कि अभी हम कीचड़ से लथपथ हैं। जब हम सेण्ट मेरिनो पहुँचेंगे और वहाँ पहुँचकर किसी सराय का दरवाजा खटखटाएँगे तो आधी रात को चौकीदार जग कर आएगा और पूछेगा, ‘कौन'? तब हम कहेंगे, 'दो संत'। हमारी इस बात को सुनते ही पहरेदार आग-बबूला हो उठेगा कि फक्कड़ लोग आए हैं। न लेना, न देना। बस रात भर सराय में ठहर जाएँगे। वह व्यक्ति आग-बबूला होकर हमें गालियाँ परोसने लगे कि 'हरामखोरो, क्या मुफ्त की सराय समझ रखी है? जाओ, दफा हो जाओ।' यह कहकर वह फिर सो जाएगा। हम कीचड़ से भरे हुए संत फिर उसका दरवाजा खटखटाएँगे और कहेंगे कि कहीं एक कोने में ही ५८ _ कैसे जिएँ मधुर जीवन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122