Book Title: Kaise Jiye Madhur Jivan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 67
________________ लगा। एक दिन वह युवती बड़े जोरो से बीमार पड़ गई। प्राण निकलने वाले ही थे कि उस युवती के मन में बड़ा प्रायश्चित होने लगा। इस भाव के साथ कि मैंने क्या से क्या कर डाला? मैंने संत हाकुइन पर इतना बड़ा इल्जाम लगा दिया और उस संत की महानता देखो जिसने बगैर किसी तरह की ननु नच किये मेरे इल्जाम का वरण कर लिया। __ आखिर उससे रहा न गया। उसने अपने माता-पिता को अपने करीब बुलाया और कहा, 'सत्य तो यह है कि जो बालक पैदा हुआ है वह संत हाकुइन का नहीं, वरन् मछली बाजार में रहने वाले एक व्यापारी का है। मैं मरने जा रही हूँ पर मरने से पहले मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ।' जब माता-पिता ने यह बात सुनी तो उनकी आँखें भीग गई कि हम क्या से क्या कर बैठे? लेकिन उस संत की महानता तो देखिए कि उसने हमारे द्वारा लगाये गये ऐसे चारित्र्यमूलक लांछन को भी झेल लिया। सारे गाँव में उसकी अप्रतिष्ठा हो गई, मगर उसकी करुणा खंडित न हुई। तब माता-पिता उस कन्या को अपने साथ लेकर संत हाकुइन के पास पहुंचे और सारी स्थिति बताई। संत मुस्कुराये और जवाब में केवल इतना ही कहा, 'ओह! तो ऐसी बात है! ठीक है।' माता-पिता ने वह बालक वापस ले लिया। बहुत ध्यान देना, साधना की इस गहराई पर बहुत ध्यान देना कि जहाँ कोई आया यह अपमान देने के लिए कि इस युवती के द्वारा पैदा हुआ बालक तुम्हारा है और अगर तुमने उसको झेल लिया, इतने भयंकर लांछन को अगर तुम बर्दाश्त कर गए तो साधक तुम्हारी साधना खरी रही। तुम असाधारण हुए। यदि किसी ने तुम पर लगाया गया लांछन उतार दिया, तब भी तुम्हारे चित्त की स्थिति अगर वैसी ही सहज और समतामूलक रहे तो तुम अपने स्वभाव के विजयी हुए। ६२ कैसे जिएँ मधुर जीवन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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