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जैसा कि लोग कहते है कि उसने एक महीने का उपवास किया तो क्या हुआ? अभी तक उसका क्रोध तो नहीं गया। यानी ज्यों-ज्यों आदमी तप करता है त्यों-त्यों वह और ज्यादा क्रोधित होता चला जाता है। आदमी ऋषि तो हो नहीं पाता, दुर्वासा जरूर हो जाता है। इसलिए हो जाता है क्योंकि आदमी केवल तप करता है, त्याग कर लेता है, व्रत कर लेता है, नियम पाल लेता है किन्तु स्वभाव तक नहीं पहुँच पाता। तब यह परिणाम निकलता है कि बीस साल का लड़का भी गुस्सा करता है और अस्सी साल का वृद्ध भी गुस्सा करता है। परिणाम यह निकलता है कि पच्चीस साल का लड़का भी लड़की देखकर दिल काला कर बैठता है, वहीं पैंसठ साल के वृद्ध भी अपने मन को चलायमान कर बैठते हैं। दोनों की स्थिति एक-सी ही रहती है क्योंकि आदमी अपने स्वभाव तक नहीं पहुँचा। आदमी ने जीवन से कुछ सीख न ली। उसने कोल्हू के बैल जैसा जीवन जिया। वह जागरूक जीवन न जी सका। साधना की सार्थकता इस बात में है कि आदमी अपने स्वभाव को बदलने के लिए कितना प्रेरित हुआ? अपने स्वभाव को संस्कारित कर लेना ही साधक की सच्ची साधना है।
अगर आपने इस एक जन्म में अपने स्वभाव को जीत लिया, स्वभाव को परिवर्तित कर लिया, तो आप साधना के प्रथम चरण में सफल हो गए, तुम सिद्ध हो गये, मुक्त हो गये। कल एक महानुभाव पूछ रहे थे कि पूजा-पाठ तो सदियों-सदियों से चले आ रहे हैं लेकिन पूजा-पाठ करने वाले लोग मुझे नहीं मालूम कि अपने स्वभाव से कितने निर्मल और पवित्र हो चुके हैं? ___ अगर कोई मुझसे पूछे कि संत हो जाना कितना कठिन है तो मैं कहूँगा कि संन्यासी हो जाना कितना सरल है, पर अपने स्वभाव को जीत लेना उसके लिए भी कितना कठिन है। आम आदमी सोचता होगा कि जीवन में संन्यास का उदय होना कितना दुष्कर है। जरूर कोई महान् पुण्य कमाया होगा जो जीवन में संन्यास का उदय हुआ ५४
__ कैसे जिएँ मधुर जीवन
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