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को बचाना। जब वह अपने धर्म से विचलित नहीं होता, तो मैं अपने धर्म से विचलित क्यों होऊँ?'
किसी भी प्राणी के स्वभाव का परिवर्तन संसार के सबसे कठिनतम कार्यों में से एक है। अगर हम अपने स्वभाव को सौम्य और बेहतर बनाने के लिए संकल्पबद्ध और प्रयत्नशील न हों, तो मरते दम तक स्वभाव नहीं बदलता। इंसान अपनी ही आदतों का गुलाम बना रहता है। किसी का आहार-पानी बदलना, खान-पान बदलना,
ओढ़ना-पहनावा बदलना, रीति-रिवाज़ बदलना व्यक्ति के लिए आसान है, किन्तु यदि कठिन है तो व्यक्ति के लिए अपना स्वभाव बदल लेना कठिन है। बुद्धि के द्वारा, तर्क के द्वारा, शास्त्र, गुरु, सत्संग के द्वारा या किसी समझदार व्यक्ति की सलाह के द्वारा, जीवन के और सौ-सौ परिवर्तन किये जा सकते हैं, लेकिन जो स्वभाव तुम जन्मजात अपने साथ लेकर आए हो, उसमें परिवर्तन करना ही असली जीत है। जब एक बालक मुझे इस बात की ओर संकेत दे रहा था कि शायद आप सारे विश्व को बदल सकने में सफल हो सकते हैं लेकिन एक आदमी की ओर संकेत करते हुए उसने कहा कि इनके स्वभाव को बदलना किसी के भी हाथ की बात नहीं है।
स्वभाव चाहे मेरा हो या आपका स्वभाव तो स्वभाव ही है और स्वभाव में परिवर्तन कर लेना इसी का नाम दीक्षा है। किन्हीं पाँच हजार लोगों के बीच में खड़े होकर किसी गुरु के सान्निध्य में संन्यास ग्रहण कर लेना दीक्षा की औपचारिकता है। दीक्षा वास्तव में तब घटित होती है जब आदमी अपने स्वभाव को जीत लेता है। साधक! हम सब के लिए चुनौती है यह जानना कि हमारा स्वभाव क्या है? तुम अपने स्वभाव से कितने पराजित हो? जिसने अपने स्वभाव को जीत लिया वह जितेन्द्रिय हो गया। जो अपने स्वभाव से हार गया वह केवल पौद्गलिक रहा।
मनुष्य का नीचे गिरता हुआ स्वभाव ही उसकी पशुता है जबकि
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कैसे जिएँ मधुर जीवन
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