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कैलास श्रुतसागर ग्रंथ सूची १०२१४८. कर्मग्रंथ-१ से ४, अपूर्ण, वि. १९वी, श्रेष्ठ, पृ. १०-३(१ से २,९)=७, कुल पे. ४, जैदे., (२५.५४११.५, १४४३७). १.पे. नाम. कर्मविपाक नव्य कर्मग्रंथ-१, पृ. ३अ-३आ, अपूर्ण, पृ.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं.
आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: (-); अंति: लहिउ देविंदसूरिहिं, गाथा-६०, (पू.वि. गाथा-४४ अपूर्ण से
तसह तं वीरं, गाया, पृ. ५अ-६अ, सहाणविमुक्कं वदा नहीं है.
२. पे. नाम. कर्मग्रंथ-२, पृ. ३आ-५अ, संपूर्ण.. कर्मस्तव नव्य कर्मग्रंथ-२, आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: तह थुणिमो वीरजिणं; अंति: देविंद
वंदिअंतसह तं वीरं, गाथा-३४. ३. पे. नाम. बंधस्वामित्व नव्य कर्मग्रंथ-३, पृ. ५अ-६अ, संपूर्ण.
आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: बंधविहाणविमुक्कं वंद; अंति: नेअंकम्मत्थयं सोउ, गाथा-२४. ४. पे. नाम. षडशीति नव्य कर्मग्रंथ, पृ. ६अ-१०अ, अपूर्ण, पू.वि. बीच का एक पत्र नहीं है. __ षडशीति नव्य कर्मग्रंथ-४, आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: नमिअ जिणं जिअ१ मग्गण; अंति:
विआरो लिहिओ देविंदसूरीहिं, गाथा-८६, (पू.वि. गाथा-५५ अपूर्ण से गाथा-७७ अपूर्ण तक नहीं है.) १०२१४९ (+) चतुःशरण प्रकीर्णक सह बालावबोध, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १०, पृ.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित., जैदे., (२५.५४११.५, ११४२६-३२).
चतुःशरण प्रकीर्णक, ग. वीरभद्र, प्रा., पद्य, वि. ११वी, आदि: सावज्जजोग विरई; अंति: (-), (पू.वि. गाथा-४५ तक
चतुःशरण प्रकीर्णक-बालावबोध, मा.गु., गद्य, आदि: पहिलउ आवश्यकना नाम; अंति: (-). १०२१५० (+#) कल्पसूत्र सह बालावबोध, अपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. १०-४(२ से ५)=६, पृ.वि. बीच व अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. संशोधित. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६४११.५, ९४२८-३२). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: नमो अरिहंताणं नमो; अंति: (-), (पू.वि. सूत्र-३ अपूर्ण तक है व बीच
के पाठांश नहीं हैं.)
कल्पसूत्र-बालावबोध*, मा.गु.,रा., गद्य, आदि: नैतत पर्वसमं पर्व; अंति: (-). १०२१५१ (+#) अष्टप्रकारी पूजा-कथासंग्रह, संपूर्ण, वि. १८वी, जीर्ण, पृ. २४, प्र.वि. पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षर पत्रों पर आमने-सामने छप गए हैं, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११, १३४४५). ८ प्रकारीपूजा कथा संग्रह, प्रा., पद्य, आदि: पणमह तं नाभिसुयं; अंति: (अपठनीय), कथा-८, ग्रं. १२००, (वि. प्रत
खंडित होने से अंतिमवाक्य अवाच्य है.) १०२१५२. (+) शतक कर्मग्रंथ सह स्वोपज्ञ टीका, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ६९-३२(१ से ३२)=३७, प्र.वि. त्रिपाठ-पदच्छेद सूचक लकीरे-संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ., जैदे., (२६४११.५, १७-२०४५२-५५).
शतक नव्य कर्मग्रंथ-५, आ. देवेंद्रसूरि, प्रा., पद्य, वि. १३वी-१४वी, आदि: (-); अंति: देविंदसूरि०आयसरणट्ठा, ___ गाथा-१००, (पू.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं., गाथा-६२ अपूर्ण से है.) शतक नव्य कर्मग्रंथ-५-स्वोपज्ञ टीका, आ. देवेंद्रसूरि, सं., गद्य, आदि: (-); अंतिः (-), (पू.वि. प्रारंभ व अंत के पत्र
नहीं हैं., गाथा-६२ की टीका अपूर्ण से प्रशस्ति श्लोक-८ अपूर्ण तक है.) १०२१५३. (#) कल्पसूत्र सह टीका-व्याख्यान ७ से ८, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १७, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. हुंडी:क.व्या., मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२५.५४११, १५४४७). कल्पसूत्र, आ. भद्रबाहुस्वामी, प्रा., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण, पू.वि. व्याख्यान-८ के प्रारंभिक सूत्र अपूर्ण
तक है.) कल्पसूत्र-कल्पलता टीका, उपा. समयसुंदर गणि, सं., गद्य, वि. १६८५, आदि: (-); अंति: (-), (प्रतिअपूर्ण,
पू.वि. व्याख्यान-८ प्रारंभिक अपूर्ण तक है.)
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