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हस्तलिखित जैन साहित्य १.१.२४
२०९
सिद्धहेमशब्दानुशासन-हिस्सा अष्टम अध्याय प्राकृत व्याकरण, आ. हेमचंद्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ, सं., गद्य,
_ वि. ११९३, आदि: (-); अंति: शेषं संस्कृतवत्सिद्धम्, (पू.वि. पाद-४ सूत्र-३९५ अपूर्ण से है.) सिद्धहेमशब्दानुशासन-हिस्सा अष्टम अध्याय प्राकृत व्याकरण की स्वोपज्ञ प्राकृतप्रकाश टीका, आ. हेमचंद्रसूरि
___ कलिकालसर्वज्ञ, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: कर्ताभ्युदयश्चेति. १०२८२९ (#) सिद्धहेमशब्दानुशासन सह टीका, अपूर्ण, वि. १८वी, श्रेष्ठ, पृ. २२-९(१ से ९)=१३, प्र.वि. मूल पाठ का अंश खंडित है, जैदे., (२६.५४११.५, १८४६९). सिद्धहेमशब्दानुशासन, आ. हेमचंद्रसूरि कलिकालसर्वज्ञ, सं., गद्य, वि. ११९३, आदि: (-); अंति: (-), (पू.वि. प्रारंभ
के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण., सूत्र-ऋत्विज्दिश० गः से है व पितृ७१ अझै च अर तक लिखा है.,
वि. अध्याय व पाद का उल्लेख नहीं मिलता है.)
सिद्धहेमशब्दानुशासन-टीका *, सं., गद्य, आदि: (-); अंति: (-), पृ.वि. प्रारंभ के पत्र नहीं हैं व प्रतिलेखक द्वारा अपूर्ण. १०२८३० (+#) वाग्भटालंकार की टीका, रीति स्वरूप व साहित्य रस लक्षणादि विवरण श्लोक संग्रह, अपूर्ण, वि. १७४८,
आश्विन शुक्ल, ११, बुधवार, मध्यम, पृ. २८-२(५,११)=२६, कुल पे. ३, ले.स्थल. विझेवानगर, प्रले. पं. जसवंतसागर (गुरु पं. केसरसागर गणि); गुपि. पं. केसरसागर गणि, प्र.ले.पु. सामान्य, प्र.वि. हुंडी:वाग्भटाटीका., संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ. मूल पाठ का अंश खंडित है, अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११.५,१५४४६-६५). १.पे. नाम. वाग्भटालंकार की टीका, पृ. १अ-२७अ, अपूर्ण, पृ.वि. बीच के पत्र नहीं हैं. वाग्भटालंकार-टीका, ग. सिंहदेव, सं., गद्य, आदिः श्रीवर्द्धमानजिनपति; अंतिः कीदृग विशेषणानि सुगमानि,
(पू.वि. परिच्छेद-१ श्लोक-१५ की टीका अपूर्ण से १९ की टीका अपूर्ण तक व परिच्छेद-२ श्लोक-२६ की टीका
अपूर्ण से परिच्छेद-३ श्लोक-१५ की टीका अपूर्ण तक नहीं है.) २.पे. नाम. रीति स्वरूप, पृ. २७अ, संपूर्ण..
रीति-रस संबंधसूचक श्लोक, सं., पद्य, आदि: लाटी हास्यरसे प्रयोगनिपुण; अंति: मुहर्मुहुर्भाषणं कुरुते, श्लोक-३. ३. पे. नाम. साहित्य रस लक्षणादि विवरण श्लोक संग्रह, पृ. २७अ-२८अ, संपूर्ण.
सं., पद्य, आदि: संप्रयोगै रथै कांत मुख; अंति: रसेच्छिन्न हुतेबुधा, श्लोक-३०. १०२८३२. मौनएकादशीपर्व गणणं, संपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. २, जैदे., (२७४११.५, १२४३६).
मौनएकादशीपर्व गणणं, सं., को., आदिः (१)जंबद्वीपे भरते अतीते, (२)श्रीमहाजस सर्वज्ञाय नम; अंतिः श्रीआरणनाथाय
नमः. १०२८३३. (+#) सुमित्रकुमार चौपाई, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. ११-१(६)=१०, पू.वि. बीच व अंत के पत्र नहीं हैं.,
प्र.वि. हुंडी:सुमित्रचउपई., सुमित्रच., संशोधित-टिप्पण युक्त विशेष पाठ. अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२७४११.५, १३४४६). सुमित्रकुमार चौपाई, ग. धर्मसमुद्र वाचक, मा.गु., पद्य, वि. १५६७, आदि: पणमिसु मण वय तणु करी पहिल; अंति:
(-), (पृ.वि. गाथा-१४५ अपूर्ण तक व गाथा-१६८ अपूर्ण से २८७ अपूर्ण तक है.) १०२८३४. (+) हेमदंडक सह कोष्टक, संपूर्ण, वि. २०वी, श्रेष्ठ, पृ.८, प्र.वि. हुंडी:हेमीदंडक०., संशोधित., दे., (२६.५४११.५, १२४३२-५२).
हेमदंडक गाथा, प्रा., पद्य, आदि: जीवभेया सरीराहार; अंति: लेस्साए अप्पाबहुदंडगंमि, गाथा-५.
हेमदंडक गाथा-कोष्टक, संबद्ध, मा.गु., को., आदि: (-); अंति: (-). १०२८३५ (#) सिंदूरप्रकर सह टीका व कथा, अपूर्ण, वि. १८वी, मध्यम, पृ. १७, पू.वि. अंत के पत्र नहीं हैं., प्र.वि. हुंडी:सिंदूरप्रकर का टीका प्रबंध., अक्षरों की स्याही फैल गयी है, जैदे., (२६.५४११.५, १६x४४-५५). सिंदरप्रकर, आ. सोमप्रभसूरि, सं., पद्य, वि. १३वी, आदि: सिंदूरप्रकरस्तपः करिशिरः; अंति: (-), (पू.वि. श्लोक-५५
तक है.) सिंदूरप्रकर-टीका, पंन्या. धर्मचंद्र, सं., गद्य, आदि: स्वर्भूभुवस्त्रईरम्यमगमं; अंति: (-). सिंदूरप्रकर-कथा, पंन्या. धर्मचंद्र, सं., प+ग., आदि: अस्त्यंगदेस शृंगाररूप; अंति: (-).
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