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ज्वाला कल्प
कुण्डे प्रपूरयेतां कमल्लिकायां पचेच पुतलिकां । पत्र कटि परिघटयेत्पटं तापयेत्कुण्डं ॥ २९ ॥
अर्थ-- फिर कुण्डमें कमल्लिकाको डालकर उस पुतलीको पकावे और पत्तेको कढाही में घोटे तथा वस्त्रको कुण्डमें गरम करे ।
सतत मथ होम मंत्र प्रपठन्निति निग्रहेषु विहतेषु । दाधोऽस्मि मारितोऽहं हतोऽहमिति रोदिति कठोरं ॥ ३० ॥
अर्थ — इसके पश्चात् निरन्तर होमके मंत्र पढ़ता हुआ इस प्रकार निग्रह किये जानेपर ग्रह "मैं जला, खूब चोट लगती है, मैं मरा" कहकर खूब रोता है
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प्रवेग सप्तदिवसान् त्रीन्वा लोके प्रसिद्ध लाभार्थं । प्रविनत ग्रहंडला द्विनास्वेच्छाया मंत्री ॥ ३१ ॥
अर्थ - पहिले सात दिन या ठीक तीन दिन लोकमें प्रसिद्ध और लाभ पानेके लिये मंत्री पुरुष ग्रहको खूब नचावे ॥ ३१ ॥
पञ्चात्सप्तमदिवसे तृतीय दिवसे दिवा महत्यस्मिन् । fafe नैव स तोभद्र मंडले नर्तयित्वा तं ॥ ३२ ॥
अर्थ- फिर सातवें दिन या तीसरे दिन उसको सर्वतोभद्र मंडल में विधिपूत्र के नचाकर ।
चतुर्थ परिच्छेद ।
कृष्णाष्टम्या मथ तद्भूत तिथौ वा कुजांशाभ्युदये । दुष्ट ग्रहमशुभग्रह लग्ने प्रविसज्ज' ये तज्ज्ञः ॥ ३३ ॥
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अर्थ — कृष्णपक्षकी अष्टमीको या उस भूतकी तिथिको अथवा मंगलके निकलने पर उस दुष्ट ग्रहको अशुभ ग्रह और अशुभ में छोड़े || ३३ ॥
समय मण्डल
विलाष्ट दल पद्म' विलिख वाहेस्य पंच वर्णेन । चूर्णेन चतुः कोणं विस्तीर्ण मंडल विलिखेत् ॥ ३४ ॥
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अर्थ-- फिर बडे आठ दलवाले कमलको लिख उस पंच वर्णके चूर्ण से चौकोर बडा मंडल बनावे ॥ ३४ ॥
हरिण वराह तुरं गमगजवृष महिष रममार्जार मुखं । फल वरद हंस युक्त सालंकार सुलक्षण नारीणां ॥ ३५ ॥
अर्थ — फिर, हरिण, वराह, तुरंग, गज, वृष, महिष, करभ (ऊंट), और मार्जारके मुख, तथा फल, और वरको देनेवाले हंससे युक्त अलंकार सहित स्त्रियोंके सुलक्षण ||||३५||
पूर्वाद्यष्ट सु पत्रेष्वनुक्रमात्सुन्दरं लिखेद्रपं । तन्मध्ये षट्कोणं शिखि भवनं शिखिमालिख्य ॥ ३६ ॥