Book Title: Jwala Malini Kalpa
Author(s): Chandrashekhar Shastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 66
________________ माहिती कल्प | "मातृके बलिं गृह र स्वाहा " मंत्र से बलि देवे । एकैकमपि निवर्धनमनेकदोषापहारि भवति नृणां । एवं निवर्धयित्वा जलमध्ये तं बलिं दद्यात् ॥ ४ ॥ ११६ अर्थ -- एकर को ही बलि देनेसे पुरुषोंके अनेक दोष नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार करके उस बलिको जलमें विसर्जित करदे ॥ ४ ॥ काली च महाकाली मालिनी लान्या तथैव कंकाली । सत्काल राक्षसीवरजंधे श्री ज्वालिनी तैब ॥ ५ ॥ अ- काली, महाकाली, मालिनी, कंकाली, कालराक्षसी, अग्निरूप वरजंघा ॥ ५ ॥ विकरालीवैतालीत्येतासां दिव्यदेवतानां तु । कृत्वा मुखानि लक्षणयुतानि सत्सिद्धमृतिकया ॥ ६ ॥ अर्थ - विकराली और बैताली इन दिव्य देवियोंके लक्षण सहित मुख सिद्ध मिट्टी से बनावे || ६ | तीक्ष्णनखदंष्ट्राग्राणि वृतनयनानि लुलितानि जिह्वानि । कुसुमाक्षत मलयजदी पधूपबहुभक्षयुक्तानि ॥ ७ ॥ अर्थ — इसके तीक्ष्ण नख, और डाट, गोलनेत्र, और जीभ निकली हुई हो। इनका भक्षं पुष्प, अक्षत, चंदन, दीप और धूप होता है ॥ ७ ॥ प्रतिदिवस कारयेविवर्धनकं । प्रारभ्य चतुर्दश्यां नवदिवस सप्तमी यावत् ॥ ८ ॥ अर्थ – इनमें से प्रत्येकके मुख में प्रतिदिन बलि दे । यह प्रयोग चतुर्दशी से प्रारम्भ करके नव दिन अर्थात् सप्तमी तक किया जाता है ॥ ८ ॥ 111 वृद्धिकर मशुभनाशं कृत्वा नीराजनं शुचिमंत्री । शतर मुखरिपु मंत्रेण तु जलमध्ये तं बलिं दद्यात् ॥ ९ ॥ अर्थ - पवित्र मंत्री वृद्धिके करनेवाले, अशुभका नाश करनेवाले, नीराजनको करके शत रिपुमंत्रसे जलमें बलि देवे । वीरेश्वराश वटुकः पंचशिराविज्ञनयकश्च महा । कात्येषां मुखानि पिष्टेन कार्याणि ॥ १० ॥ अर्थ – विरेश्वराश, वटुक, पंचशिरा, विन नायक और महा कालके मुखको भी पिसी हुई सिद्ध मिट्टीसे बनावे | उग्राणि लोचनत्रय युतानि मूर्द्धस्थ दीप्तदीपानि । बहुभक्षकुसुम मलयज सुगन्धधूपश्च सहितानि ॥ ११ ॥ अर्थ - इनके उग्र तीन नेत्र, शिरपर चमकते हुए दीपक और बहुत प्रकारका भक्ष, पुष्प, चन्दन और सुगन्धित धूप हो ॥ ११ ॥

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