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बारामालिनी कल्प।
म पबिपछे छ कर दे और आगे दिक्पालोंके चरुको भी इस मंत्रसे
अर्थ-पुष्प और अक्षत दोनों हाथोंमें लेकर मस्तक पर देकर ।। १८ ॥
हाथ रक्खे हुए उस मंडलकी प्रदक्षिणा देकर सामने मख ॐ कूट पिण्ड शिखिनी संमं हं च देवदत्तस्य ।
करके उसके मध्य में बैठ जावे ॥२२॥ शांति तुष्टिं पुष्टिं कुरु युगं रक्ष युगलं च ॥ १९ ॥
वसुधारा मन्त्र दिग्देवते बलि गृहण मंत्र सराब होमान्तं ।
ॐ वसुधारदेवते ज्वालामालिनि जल २ विजल विजल एवं निवर्ध्य विधिना बलिं क्षिपेत्स्वदिति जल मध्ये ॥२०॥
| सुजल २ हेमर शीतल २ देवि कोटिभानु चन्द्रांशु कुरु२ हूँ व्य ज्वालामालिनि संबं में हं देवदत्तस्य शांति त्रिभुवनसंक्षोभिणि क्षा क्षी सूक्षौं क्षः देवि त्वं आत्मपरिवार तुष्टिं पुष्टि कुरु२ रक्ष२ दिग्देवते बलिं गृह २ स्वाहा।
देवता सहिते देवदत्तस्य तुष्टिं पुष्टिं शीघ्र वर देहि२ सद्धम्मश्री
बलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धि कुरु२ सर्वोपद्रवमहाभयं नाशयर इत्यष्ट दिग्पालक विवर्धन
सर्वाप मृत्यून घातय२ शीघ्रं रक्षर नव ग्रहा एकादशस्था सर्वे अर्थ-विधिपूर्वक सुन्दर जलमें विसर्जित कर दे। फलदा भवन्तु हां ह्रीं है हो हः स्वाहा सर्व वश्यं कुरुर मंत्र-ॐक्ष्च्यू ज्वालामालिनि संव में है देवदत्तस्य ।
क्रौं क्रौं वं मंहं सं तं स्वाहा ।" 'शांतिं तुष्टिं पुष्टिं कुरु कुरु रक्ष२ दिग्देवते बलिं गृह२ स्वाहा ।" वसुधार मंत्रमिदं प्रपर्टस्तीर्थोदकं च गौमत्रं ।
"गव्यानि पंचतकं दधि त्रिमधुरं तथा क्षीरं ।। २३ ।। दिव्याम्बरभूषाकुसुममलजालं कृतोतमशरीरः। उत्थाप्य तत्प्रदेशाव्रजतु ग्रहपादुकोरूढः ॥ २१ ॥
अर्थ-इस वसुधारा मंत्रको पढता हुआ तीर्थों के जल,
-गौमत्र, और गऊके पांचों गव्य तक्र,दही, त्रिमधुर, दूध ॥ २३॥ अर्थ-फिर दिव्य वस्त्र आभूषण पुष्प और सुगन्धि । आदिसे अपने शरीर पर शोभित करके वहांसे उठकर खडाऊँ । वर पंच पल्लवोदकमपि च प्रक्षिप्य लंबमान घटे। पर चढ कर चले ॥ २१ ॥
-संस्थाप्यावस्थं तं पश्चाद्गंधोदक दद्यात् ॥ २४ ॥ कुसुमाक्षतांजलिपुटोललाटहस्तः प्रदक्षिणीकृत्यः । ३६ अर्धा-पांचो उत्तम पत्ते और जलको उस लटकते हुए जमा-तन्मंडलं ततोसाबभिमुखमुपविश्व तन्मध्ये ॥२२॥ - घडे में डालकर फिर उसको नीचे रखकर गंधोदक देवे ॥२४॥