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माबिनी कल्प
बाह्ये पावका मण्डलं वर युतं मंत्रेण देव्यास्ततो । be वायूनांत्रितयेन वेष्टनमिदं यंत्रं जगत्युत्तमं ॥
श्री खंडा गुरु कू कुमाद्र महिषी कर्पूर गौरोचना । कस्तूर्यादिभिरुदध लिखितं कुर्य्यात्सदा कर्षणं ॥ ११ ॥
अर्थ - इस यन्त्रको भोजपत्र पर श्री खण्ड अगर और कुंकुम आदि महिषी, कपूर, गौरोचन और कस्तूरी आदि से लिखने पर सदा आकर्षण होता है ॥ ११ ॥
लाक्षा पांशु सुसिद्ध सत्प्रति कृती कृत्वा हृदीदं तपोयंत्र स्थापय नाम पत्र सहितं लाक्षां प्रपूर्य्यादरे । मीत्वा योनि ललाट हृत्सुपर पुष्ट क्षस्य सत्कंटकः, रेकi कुण्डतले निखन्य परांबद्धाग्नि कुण्डोपरि ॥ १२ ॥
अर्थ- इस यन्त्रको सिद्ध करनेके वास्ते अपनी इच्छित की दो मूर्तियां लाखकी बनवावे। उस मूर्ति में योनि, मस्तक, हृदय, ओष्ट आदि स्पष्ट रूपसे खुदे हुए हों, फिर उपरोक्त यन्त्रको उन मूर्तियोंके हृदयमें रखकर एक मूर्तिको कुण्ड के नीचे गाडकर दूसरीको कुण्डके ऊपर बांधकर रक्खे || १२ || - लाक्षा गुग्गुल राजिका तिल घृतैः पात्रस्थ नामान्वितैः । संयुक्त लेवणेन तत्सति युक्तः संध्या सु साष्टं शतं ॥ मंत्रेणान् दैवतस्य जुहु वादा सप्तरात्रा tuos रिन्द्राणी मपि चानयेत् क्षितिगत त्रयाकर्षणे का कथा ॥ १३॥
चतुर्थपरिच्छेद ।
अर्थ - और लाख, गुग्गुल, सफेद सरसों, तिल, घी, और नमकसे, संध्या समय पात्रके नामके पीछे स्वाहा लगा लगाकर सात रात्रि तक होम करे, ऐसा करनेसे इन्द्राणी तकका भी पृथ्वीपर आकर्षण होता है। स्त्रीके आकर्षणकी तो क्या बात है ।। १३ ।।
दिव्य गति सेना जिह्वा और क्रोधस्तंभन यंत्र
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नामा लिख्य प्रतीतं कपरपुट गतं टांतवेष्टय चतुर्भिः बज्र विद्धं चतं कुलिशविवारगं वामबीजं तदग्रे ॥ बज्र' चान्योन्यविद्धं परिलिखबहिविष्णुना त्रिः परीतं । ज्योतिश्रांद्रबिंदु हरि कमल जयोः स्तम्भ बिंदुर्लकारे ॥ १४
अर्थ -- नाम को, ख, की पुटमें लिखकर उसको वज्राकार रेखाओंसे बींधकर वज्रके छेदोंके सामने ॐ, बीज लिखे और मध्य में लं लिखे । परस्पर बिंधे हुये इस वज्रके मंडलके ऊपर साथ खां, है.
और ग्लै, बीज भी लिख दे ॥ १४ ॥
तालेन शिला संपुट लिखितं परिवेष्टच पीत सूत्रेण । दिव्य गति सैन्य जिह्वा क्रोधं स्तंभयति कृत पूजं ॥ १५ ॥
अर्थ- इस यंत्र को तालसे दो शिलाओं पर लिखकर दोनों यंत्रोंका मुख मिलाकर पीले धागेसे लपेटे और पूजा करनेसे ! दिव्य गति सेना जिह्वा और क्रोधका स्तंभन होता है ॥ १५॥