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जिनागम के अनमोल रत्न ]
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( 2 ) योगसार
जइ वीहउ चउगइगमणु तउ परभाव चएवि । अप्पा झायहि णिम्मलउ जिम शिवसुक्ख लहेवि ॥15 ॥ जो चउ गति दुख से डरे, तो तज सब पर भावं । कर शुद्धातम चिन्तवन, शिव-सुख यही उपाव ।। अर्थ :- हे जीव ! यदि तू चतुर्गति के भ्रमण से भयभीत है, तो परभाव का त्याग कर और निर्मल आत्मा का ध्यान कर, जिससे तू मोक्ष-सुख प्राप्त कर सके ।
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शुद्धप्पा अरु जिणबरहं भेउ म किमपि बियाणि । मोक्खह कारण जोइया णिच्छइ एउ बियाणि । 120 ॥ जिनवर अरु शुद्धात्म में, किंचित् भेद न जान।
मोक्ष अर्थ हे योगिजन ! निश्चय से पहिचान ।। अर्थ :- हे योगी ! अपने शुद्धात्मा में और जिन - भगवान में कुछ भी भेद न समझो - मोक्ष का साधन निश्चय से यही है ।
जो जिणु सो अप्पा मुणहु इह सिद्धंतहु सारू । इह जाणेविण जोयइहु छंडहु मायाचारू ।।21। जो जिन सो आतम लखो, निश्चय भेद न रंच । यही सार सिद्धान्त का, छोड़ो सर्व प्रपंच ॥ अर्थ :- जो जिन- भगवान है वही आत्मा है - यही सिद्धांत का सार
समझो । इसे समझकर हे योगीजनों ! मायाचार को छोड़ो।
जो परमप्पा सो जि हउं जो हउं सो परमप्पु । इ जाणेबिणु जोइया अण्णु म करहु बियप्पु । 1 22 11 जो परमातम सोहि मैं, जो मैं सो परमात्म ।
ऐसा जान जु योगिजन, करिये कुछ न विकल्प ।।
अर्थ :- जो परमात्मा है वही मैं हूँ, तथा जो मैं हूँ वही परमात्मा है - यह समझकर हे योगिन् ! अन्य कुछ भी विकल्प मत करो ।