Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 15
________________ 14] [जिनागम के अनमोल रत्न (3) परमात्म प्रकाश "आत्मा ध्यानगम्य ही है, शास्त्रगम्य नहीं है, क्योंकि जिनको शास्त्र सुनने से ध्यान की सिद्धि हो जावे, वे ही आत्मा का अनुभव कर सकते हैं। जिन्होंने पाया उन्होंने ध्यान से ही पाया है और शास्त्र सुनना तो ध्यान का उपाय है, ऐसा समझकर अनादि अनंत चिद्रूप में अपना परिणाम लगाओ। वही कहा है अन्यथा वेदपाण्डित्यं शास्त्रपाण्डित्यमन्यथा। अन्यथा परमं तत्त्वं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यथा।। वेद शास्त्र तो अन्य तरह ही हैं, नय प्रमाणरूप हैं, तथा ज्ञान की पंडिताई कुछ और ही है, वह आत्मा निर्विकल्प है, नय-प्रमाण-निक्षेप से रहित है, वह परम तत्त्व तो केवल आनन्दरूप है, और ये लोक अन्य ही मार्ग में लगे हुए हैं, सो वृथा क्लेश कर रहे हैं। इस जगह अर्थरूप शुद्धात्मा ही उपादेय है, अन्य सब त्यागने योग्य है।" -टीका प.प्र.गा. 23 भावार्थ :- यहाँ जो सिद्ध परमेष्ठी का व्याख्यान किया उसी के समान अपना भी स्वरूप है, यही उपादेय है, जो सिद्धालय है वह देहालय है, अर्थात् जैसा सिद्धलोक में विराज रहा है, वैसा ही हंस (आत्मा) इस घट में विराजमान है। -गाथा 25 जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिबसइ देउ। तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहँ मं करि भेउ।। अर्थ :- जैसा केवलज्ञानादि प्रगटरूप कार्य समयसार उपाधि रहित भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्मरूप मल से रहित, केवलज्ञानादि अनंत गुणरूप सिद्धपरमेष्ठी देवाधिदेव परम आराध्य मुक्ति में रहता है, वैसा ही सब लक्षणों सहित परब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, स्वभाव परमात्मा, उत्कृष्ट शुद्ध द्रव्यार्थिकनय कर शक्तिरूप परमात्मा शरीर में तिष्ठता है, इसलिये हे प्रभाकर भट्ट! तू सिद्ध भगवान में और अपने में भेद मत कर। -गाथा 26

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