Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 16
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [15 मुक्तश्चेत्प्राग्भवे बद्धो नो बद्धो मोचनं वृथा। अबद्धो मोचनं नैव मुञ्चेरों निरर्थकः।। अनादितो हि मुक्तश्चेत्पश्चाद्वन्धः कथं भवेत्। बन्धनं मोचनं नो चेन्मुञ्चरों निरर्थकः।। अर्थ :- जो यह जीव पहले बंधा हुआ होवे, तभी 'मुक्त' ऐसा कथन संभवता है और जो पहले बंधा ही नहीं तो फिर 'मुक्त' ऐसा कहना किस तरह ठीक हो सकता है। मुक्त तो छूटे हुए का नाम है, सो जब बंधा ही नहीं, तो फिर 'छूटा' किस तरह कहा जा सकता है। जो अबंध है, उसको छूटा कहना ठीक नहीं। जो विभावबंध मुक्ति मानते हैं, उनका कथन निरर्थक है। जो यह अनादि का मुक्त ही होवे, तो पीछे बंध कैसे संभव हो सकता है। बंध होवे तभी मोचन छुटकारा हो सके, जो बंध न हो तो मुक्त कहना निरर्थक है। . -पर.प्र.गा.टीका 59 ण बि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ। जिउ परमत्थे जोइया जिणबरू एउँ भणेइ.।।68॥ अर्थ :- निश्चय से विचारा जावे, तो यह जीव न तो उत्पन्न होता है, न मरता है और न बंध-मोक्ष को करता है, अर्थात् शुद्ध निश्चयनय से बंधमोक्ष से रहित है - ऐसा जिनवरदेव कहते हैं। छिज्जउ भिज्जउ जाउ खउ जोइ उ एहु सरीरु। अप्या भावहि णिम्मलउ जिंपावहि भव-तीरु।।2।। अर्थ :- हे योगी! यह शरीर छिद जावे, दो टुकड़े हो जावे, अथवा भिद जावें, या नाश को प्राप्त हो जावे, तो भी तू भय मत कर, मन में खेद मत कर, अपने निर्मल आत्मा का ही ध्यान कर, अर्थात् वीतराग चिदानन्द शुद्धस्वभाव तथा भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म रहित अपने आत्मा का चिंतवन कर, जिस परमात्मा के ध्यान से तू भवसागर का पार पायेगा। . दुक्खहँ कारणि जे बिसय ते. सुह हेउ रमेइ। मिच्छाइट्ठिउ जीवऽउ इत्थु ण काइँ करेइ ।।84।।

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