Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 14
________________ जिनागम के अनमोल रत्न] [13 जइ बद्धउ मुक्कउ मुणहि तो वंधियहि णिभंतु। सहज-सरुवइ जइ रमइ तो पावहि सिव-संतु।।87।। बन्ध-मोक्ष के पक्ष से, निश्चय बांधे कर्म। सहज रमै निजरूप में, तो पावे शिव शर्म।। अर्थ :- यदि तू बन्ध-मोक्ष की कल्पना करेगा तो तू निःसन्देह बन्धेगा, यदि तू सहज-स्वरूप मैं रमण करेगा तो शान्त स्वरूप मोक्ष को पावेगा। निज स्वरूप में जो रमें, त्याग सर्व व्यवहार। सम्यग्दृष्टि जीव सो, शीघ्र लहे भवपार।।89।। जो जाने शुद्धात्म को, अशुचि देह से भिन्न। सो ज्ञाता सब शास्त्र के, शाश्वत सुख में लीन ।।95।। स्व-पर रूप जानै न जो, नहीं तजै परभाव। सकल शास्त्र जाने तदपि, लहेन शिव-सुखभाव।।6।। अरहंतु वि सो सिद्ध फुडु सो आयरिउ वियाणि। सो उबझायउसो जिमुणि णिच्छईं अप्पा जाणि।104।। आत्मा सो अर्हत है, निश्चय सिद्ध जु सोय। आचारज उबझाय अरु निश्चय साधु सोय।। ... अर्थ :- निश्चय से आत्मा ही अरहंत है, वही आत्मा प्रगटपने सिद्ध है, उसी को आचार्य जानो, वही उपाध्याय है और वही आत्मा ही साधु है। जेते कछु पुद्गल परमाणुशब्दरूप, भये हैं अतीत काल आगे होनहार हैं। तिनको अनंतगुण करत अनन्तबार, ऐसे महाराशि रूप धरै विस्तार हैं।। सबही एकत्र होय सिद्ध परमातम के, मानो गुण-गण उचरन अर्थधार हैं। तौ भी इक समय के अनंत भाग आनंद को, कहत न कहैं हम कौन परकार हैं।। -सिद्धचक्र विधान पूजन

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