Book Title: Jinagam Ke Anmol Ratna
Author(s): Rajkumar Jain, Mukesh Shastri
Publisher: Kundkund Sahtiya Prakashan Samiti

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Page 11
________________ [जिनागम के अनमोल रत्न पुणिं पावइ सग्ग जिउ पावएं णरयणिवासु । बे छंडिवि अप्पा मुणइ तो लब्भइ सिबबासु । 32 ।। लहे पुण्य से स्वर्ग सुख, पड़े नरक कर पाप । पुण्य-पाप तज आप में, रमैं लहै शिव आप ।। अर्थ :- पुण्य से जीव स्वर्ग पाता है और पाप से नरक में जाता है। जो इन दोनों को छोड़कर आत्मा को जानता है वह मोक्ष प्राप्त करता है । को सुसमाहि करउ को अंचर, छोपु - अछोपु करिवि को बंचउ । हल सहि कलहु केण समाणउ, जहां कहिं जोब तहिं अप्पाणउ ॥ 140 ।। कौन किसे समता करे, सेवे पूजे कौन । किसकी स्पर्शास्पर्शता, ठगे कौन को कौन ।। कौन किसे मैत्री करे, किसके साथ कलेश । जहं देखूं तहं सर्व जिय, शुद्ध बुद्ध ज्ञानेश । । अर्थ :- कौन तो समाधि करे, कौन अर्चन - पूजन करे, कौन स्पर्शअस्पर्श करके वंचना करे, कौन किसके साथ मैत्री करे और कौन किसके साथ कलह करे - जहाँ देखो वहाँ आत्मा ही आतमा दृष्टिगोचर होता है। तित्थहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि बुत्तु । देहा - देवलि देउ जिणु एहउ जाणि णिरुत्तु ।। तीर्थ - मन्दिर में देव नहिं, यो श्रुतकेवली बानि । तन मन्दिर में देव जिन, यह निश्चय से जान ।। 10] अर्थ :- श्रुत- केवली ने कहा है कि तीर्थों में, देवालयों में देव नहीं है, जिनदेव तो देह - देवालय में विराजमान है - इसे निश्चित समझो | देहा - देवलि देउ जिणु जणु देवलिहिं णिएइ । हासउ मह पडिहाइ इह सिद्धे भिक्ख भमेइ | 143 ॥ तन- मन्दिर में देव जिन, जन मन्दिर देखंत | हास्य मुझे दीखे अरे ! प्रभु भिक्षार्थ भ्रमंत । ।

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