Book Title: Jinagam Katha Sangraha
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 229
________________ [ २१४ ] उऊसु-(तुषु) ऋतुओं में। उब्भिन्ने - ( उद्भिनम् ) प्रगट उक्कंचण - (उत्कंचन) हलकी हुआ । चीज को बडी बताना । उम्मति--(उन्मतिम् ) उन्माद । उक्खयनिक्खए-(उत्खातनिखा- उयएण-( उदकेन) जल से । तान् ) खोद दिये हुए। उल्लपडसाडिगा ---- (आर्द्रपटशाउच्छुभति - ( उत्सर्भति उत्+ टिका) जिसकी साडी और सभ्) मारता है । कपडे गीले हैं ऐसी । उज्झणधम्मियं - ( उज्झन- उल्लावेइ-(उल्लापयति) बुलवाता धार्मिकम् ) फेंकने योग्यजूठा अन्न | उवक्खडावेत्ता- (उपस्कारउट्टियाओ- ( उष्ट्रिकाः) घृत यित्वा) तैयार करा करके। आदि प्रवाही पदार्थों के . उबटाणेसु-( उपस्थानेषु) एक भरने का ऊंट जैसे आकार प्रकार के मंडपों में । वाला मट्टी का एक पात्र- उवतप्पामि - ( उपतृप्या - विशेष । ___ तर्पया-मि ) खुश करूं उड़ाए - (उत्थया) उत्थान- उवप्पयाणं - (उपप्रदानम् ) शक्ति से । लालच, कुछ देना । उटाणे --- देखो टि. ५१ । उवलद्वपुण्ण° - ( उपलब्धउदाति-(उत्तिति) उठता है, पुण्यपापः) पुण्य और * आता है। पाप के स्वरूप को जाननेउत्तरिज -( उत्तरीयम् ) चद्दर, वाला । उवाहिनियडिकुसला -(उपधिउन्भएण ---- (ऊर्ध्वकेन ) खडा निकृति-कुशलाः ) छलहो कर के । कपट में कुशल । दुपट्टा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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