Book Title: Jinagam Katha Sangraha
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 238
________________ [ २२३ ] झिंखण - (दे०) रोप । णवएहिं - (नवकैः) नये से। झीणविहयो - ( क्षोणविभवः) णवाऽऽयए - ( नवाऽऽयतः) जिसका विभव क्षीण हो। नव हाथ लंबा । गया है। णित्थरियन्वं-(निस्तरितव्यम्) झुसिरे-(सुपिरः) पोला। पार जाना । णित्यारिए समाणे-(निस्तारितः टंकेसु-(टक्केषु) एक तरफ सन्) बचाया हुआ । कोरे हुए पर्वतों में । णिप्फिडइ - (निष्फेटति) यहार टिटियावेति -(टिट्टिकापयति) निकलता है । टट्टटट्ट अवाज होवे, इस णियगकुच्छिसंभूयाति-(नीजक तरह हलाता है। कुक्षी-संभूतानि )जो अपनी टिइयं-(स्थितिकाम् ) रीति । कुक्षी से पैदा हुए हो, वे। णिरय ---- (निरय) नरक । ठाणुखंडे ---(स्थाणुखण्डम् ) ढूंठा णिवत्तेमि - (निर्वर्तयामि) वृक्ष, ढूंठा । बनाऊ । णोलायंते-(नोदयन् ) उखाडता डालयंसि - (दे० 'दल' उपर हुआ । से) दाळ, शाखा । पहविय - देखो टि. ३९। . डिंडी-(दंडी ?) दंडधर पहाणोवदाई-(स्नानोपदायि- . पुरुप । काम् ) स्नान के लिये जल देनेवाली । गजति - (ज्ञायते) जाना जाता तए - (त्वया) तेरे से। णज्जति -(शायन्ते) ज्ञात हो। तच्च - (तृतीय) तीसरा । पहावय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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