Book Title: Jinagam Katha Sangraha
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 261
________________ [ २४६ ] संताण -(संत्राण) रक्षण | संतियं -(सत्कं) उसके पास का । संथावणं- . (संस्थापनम् ) सांत्वन । संपहारेत्ता - (संप्रधारयित्वा) विचार करके । संपेहेति - (संप्रेक्षते) विचार करता है। संवादीनं -- (शाम्बादीनाम् ) शांव आदि का । संलत - (संलपितम् ) कहा। संवट्टणाणि --(संवर्तनानि ) जहां ___ अनेक मार्ग मिलते हों, ऐसे स्थान । संविटेमाणी - (संवेष्टमाना) पोषण करती हुई । संसारेति - (संसारयति) चलित करता है। साइसंपओग- ( सातिसं- प्रयोग) उत्कंचनादि सहित दुष्ट प्रवृत्ति करना । साकेयं ---(साकेतम् ) अयोध्या। सारक्खमाणी - (संरक्षमाणा ) पालती हुई । सारिच्छो -(सदृक्षः ) सरीखा समान । सालघरएसु - (शालगृहेषु) शाल नामक पेड से बने हुए गृहों में । सालिअक्खए- (शालिअक्षतान् ) अक्षत शालि । सावगाणं - देखो टि. ३४ । सावय°--(श्वापदशतान्तकरणेन) सैकडो श्वापदों का अंत करनेवाला। सासयवाइयाणं-(शाश्वतवादि कानाम् ) आत्मा शाश्वत है ऐसा कहनेवालों को। साहति -(साधयति ? ) कहता साहरंति -(संहरन्ति) संकुचित कर लेते हैं । सिक्खगो-(शैक्षकः ) सीखने वाला। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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