Book Title: Jinagam Katha Sangraha
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 259
________________ [ २४४ ] सतेणं - (स्वकेन ) अपने निज के । सतेहिंतो- (स्वकेभ्यः) अपने। सत्तसिक्खाचइयं-देखो टि. ४६ । सत्तंगपतिटिए - ( सप्ताप्रति ष्ठितः) सातों अंगों से प्रतिष्ठित [चार पैर, सुंढ, पूंछ और पुंचिह] । सनुयादुपालियं - ( सक्तुक द्विपालिकाम् ) सत्त की दो पाली को । सत्तुस्सेहे-(सप्तोत्सेधः) सात हाथ ऊंचा। सदावेति- (शब्दापयन्ते) बुलाते हैं। सद्धि ---(सार्धम् ) सहित । सन्धिमुहे -(सन्धिमुखे) चोरी के लिये भीत में किये हुए छेद में। सन्निपुष्वे - देखो टि. २८, सन्निहियपाडिहरो - ( सन्नि हितप्रातिहार्यः) चमत्कार वाला, प्रत्यक्ष प्रभाववाला। समाणि... समाः) मनष्यो के बैठने के स्थान, और चौपाल । समखुरवालिहाणं- (समक्षुर वालिधानम् ) जिसके खुर और पूंछ समान है। समणाउसो - (श्रमणायुष्मन्) हे आयुष्मान् श्रमण ! समया-(समता ) समभाव से। समलिहियं० - (समलिखित. तीक्ष्णशृङ्गः) जिसके सींग नोंकदार और बराबर समान हैं। समालदो-(समालब्धः) सजा हुआ । समालहण - (समालमन) तैयारी । सभिए -(शमितः) शांत । समुक्खित्तेहि- (समुत्क्षिप्तः) फैंके हुए। सन्निवइए -(संनिपतितः) गिरा हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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