Book Title: Jinagam Katha Sangraha
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Kasturbhai Lalbhai Smarak Nidhi Ahmedabad

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Page 252
________________ [ २३७ ] महं-(मह्यम्-मम) मेरे को। महंततुंब०- ( महातुम्वकित. पूर्णकर्णः) जिसके कान वडे और तुबे के जैसे गोळ हैं। महाणसिणि- (महानसिकीम्) रसोईघर में काम करने वाली । महालियं-(महती) सारी [रात ] | (प्राकृत में 'ल' प्रक्षिप्त माणमाणिकं-(मानमाणिक्यम् ) मानरूप माणिक्य को। माणुम्माण° - (मान-उन्मान प्रमाण-) शरीर के अवयवों की, योग्य लवाई और चौडाई-शरीर की योग्य ऊंचाई और वजन। मा भाहि - ( मा भैषी:) डरना नहीं। माम -(दे मातुल) मामा। मालुयाकच्छए - ( मालुका कच्छके) एक प्रकार की अधिक फैलती हुई वल्ली[ देखो 'भ. म. नी धर्म कथाओ' टि. २, क. २]। मालेसु-- (मालेषु) पहाड जैसे अंचे जमीन के ___ भागों में । माहण- (ब्राह्मण) ब्राह्मण । मिच्छा-(मिथ्या) मिथ्या । मिरिय - (मरीच ) मरी । मिसिमिलेमाणे --- ( अनुकरण शब्द) क्रोधाग्नि से मिसमिस करता हुमा । महुमहणस्स-(मधुमथनस्य) मधुदैत्य को मारनेवाला कृष्ण । महुरसमुल्लावगाति - (मधुर- समुल्लापकानि) मधुर मधुर वोलनेवाले । महेजा- (मथेयम् ) हैरान करूं । मंजूसं--(मञ्जूषाम् ) वडी पेटी को [गूजराती गजूस' मंतुं-(मन्तुम् ) क्रोध । मंसु-(श्म) दाढी छ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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