Book Title: Jinabhashita 2007 06 07 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 4
________________ सम्पादकीय शुभोपयोग क्षायोपशमिकभाव भी है कुण्डलपुर (दमोह, म.प्र.) में दिनांक १४ मई से १६ मई २००७ तक सम्पन्न श्रुताराधना शिविर में परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी ने विद्वानों को एक इस महत्त्वपूर्ण तथ्य से अवगत कराया कि शुभोपयोग केवल औदयिक ही नहीं होता, अपितु औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक भी होता है। दिगम्बर जैनों का जो वर्ग चतुर्थ गुणस्थान में शुद्धोपयोग की उत्पत्ति मानता है, वह यह भी मानता है कि शुभोपयोग औदयिकभाव है, उससे कर्मों का बन्ध होता है, अतः मोक्ष में बाधक होने से हेय है। शुभोपयोग के औदयिकभाव होने के प्रमाण में वह वर्ग आचार्य जयसेन के निम्नलिखित वचन उद्धृत करता है, जिनमें उन्होंने मिथ्यादृष्टि को कदाचित् शुभोपयोग भी होने की बात कही है "--- तत्रैवं कथञ्चित् परिणामित्वे सति अज्ञानी बहिरात्मा मिथ्यादृष्टिर्जीवो विषयकषायरूपाशुभोपयोगपरिणामं करोति। कदचित्पुनश्चिदानन्दैकस्वभावं शुद्धात्मानं त्यक्त्वा भो चदानन्दकम्वभावं शदात्मानं त्यक्त्वा भोगाकांक्षा-निदानस्वरूपं शभोपयोगपरिणाम च करोति।" (तात्पर्यवृत्ति / समयसार / गा. ७४ ‘जीवणिबद्धा एए')। अनुवाद- "--- इस प्रकार जीव के कथंचित् परिणामी होने से अज्ञानी, बहिरात्मा, मिथ्यादृष्टि जीव विषयकषायरूप अशुभोपयोगपरिणाम करता है और कदाचित् चिदानन्दैकस्वभाव-शद्धात्मा को छोड़कर भोगाकांक्षानिदानस्वरूप शुभोपयोग परिणाम भी करता है।" आचार्य जयसेन ने प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति में भी कहा है "यदा --- सम्यक्त्वपूर्वकः शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति परम्परया निर्वाणं च। नोचेत् पुण्यबन्धमात्रमेव।" (ता.व./ प्रवचनसार । ३/५५)। अनुवाद- "जब --- सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोग होता है, तब साक्षात् पुण्यबन्ध होता है और परम्परया निर्वाण, अन्यथा (शुभोपयोग के सम्यक्त्वपूर्वक न होने पर) केवल पुण्यबन्ध होता है।" यहाँ आचार्य जयसेन ने 'नोचेत्' (अन्यथा) शब्द से सूचित किया है कि मिथ्यात्व की अवस्था में भी शुभोपयोग होता है। मिथ्यादृष्टि को होनेवाला शुभोपयोग निश्चितरूप से मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीकषाय के मन्दोदय का परिणाम है। अतः वह औदयिकभाव है। मिथ्यादृष्टिगुणस्थान को औदयिकभाव कहा भी गया है। आचार्य अमृतचन्द्र जी ने भी मोहनीय के उदय में शुभाशुभ उपयोग की उत्पत्ति बतलायी है। यथा "यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद् रज्यमानोपयोगः सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावमादधाति स स्वकचरित्रभ्रष्टः परचरित्रचर इति उपगीयते। यतो हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितम्। परद्रव्ये सोपरागोपयोगवृत्तिः परचरितमिति।" (समयव्याख्या / पंचास्तिकाय / गा. १५६)। अनुवाद- "जो जीव मोहनीयकर्म के उदय का अनुसरण करने के कारण उपयोग के रागग्रस्त होने पर परद्रव्य में शुभ या अशुभ भाव करता है, वह स्वचरित्र से भ्रष्ट हो जाता है, अतः परचरित्र का आचरण करनेवाला कहलाता है, क्योंकि स्वद्रव्य (स्वात्मा) में शुद्धोपयोगवृत्ति होना स्वचरित है और परद्रव्य में सरागोपयोगवृत्ति (उपयोग की रागसहित वृत्ति) होना परचरित है।" इन प्रमाणों को देखते हुए यह बात मान्य है कि मिथ्यादृष्टि का शुभोपयोग औदयिकभाव है, अतः उससे केवल पुण्यबन्ध होता है, संवर-निर्जरा नहीं। किन्तु, आचार्य श्री विद्यासागर जी ने शुभोपयोग की जो मीमांसा की उससे ज्ञात हुआ कि आगम में शुभोपयोग को औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिकभाव भी कहा गया है। आचार्यश्री ने निम्नलिखित प्रमाणों की ओर ध्यान आकृष्ट किया 2 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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