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और दूसरे भाग में दिया है "। इस विषय पर विद्वानों के द्वारा विशेष अनुसंधान करने की आवश्यकता है। इस विषय पर और प्रकाश डालते हुए लिखा है, "इन उपर्युक्त सभी मंदिरों में महादेव की पिंडी बिठाई है। महादेव को महारूद्र इस नाम से जैन भी पहिचानते हैं, लेकिन वे न हाथ, न मुँह और न पैर ऐसा मात्र नहीं मानते। हिंदुओं के कई मंदिरों में महादेव की मूर्ति भी रहती है फिर भी वहाँ पिंडी रहती ही है। किसी भी मूर्ति का वर्णन करना हो तो वह मूर्ति जिस आकार की होगी उसीप्रकार वर्णन करने की रीति होती है, लेकिन इस महादेव का सभी विचित्र ही है। पोथी पुस्तक में अथवा स्तुति स्त्रोतों में उनका वर्णन करना हो तो, हाथ में त्रिशूल, सरपर जटा, व्याघ्रांबर धारी, शंखधारी, गले में रुंडकीमाला इत्यादि का वर्णन करते हैं, लेकिन मंदिरों में महादेव की मूर्ति देखें तो सिर्फ गोलाकार पत्थर बिठाया नजर आता है ऐसा प्रकार क्यों होगा? इसका अगर विचार किया तो ऐसा लगता है कि- प्राचीनकाल में वृषभनाथ को ही महादेव कहकर पूजा करते थे इसके आगे धर्मांतर किये हुये क्षत्रियों के मन में पूर्व धर्म की (जैन धर्म की) भावना नष्ट हो इसीलिए वृषभदेव मूर्ति के पास महादेव कहकर रखा होगा। पूना, अहमदनगर, नासिक इस जगह जैनकासार और हिंदूकासार ( ये पहले जैन ही थे) इनके दर्शन के लिए कालिका मंदिर में भगवान् पार्श्वनाथ की मूर्ति रखते थे ।" (पृ. ७७-७८)
इसी पृष्ठ पर, याने पृष्ठ ७१ पर लिखा है, " यल्लोरा के लेणीयों में सबसे महत्त्वपूर्ण लेणी मतलब "कैलाश पर्वत" । पिछली बार चौकस बुद्धि से देखने के बाद यह लेणी मूलतः आदिनाथ तीर्थंकर का ही होगा ऐसा दिखा। इतिहास प्रसिद्ध राष्ट्रकूट घराने में से एक राजा ने यह तैयार किया है और राष्ट्रकूट राजा जैन धर्मीय थे यह अब सूर्य प्रकाश जितना सत्य साबित हुआ है। हिंदुओं ने इस लेणी में से मूल मूर्ति के ही इन्द्रियों को छाँटकर उसी को महादेव की मूर्ति बनाई है यह कैलाश लेणी के आकृति से समझ में आता है। भगवान् आदिनाथ भी कैलाश पर्वत पर ही मोक्ष को गये है और इन लेणीयों का नाम भी कैलाश लेणी ऐसा ही है । ( यल्लोरा की सभी लेणीयाँ जैनों की ही हैं, यह कैसे यह एक पुस्तक में देने वाले हैं।) किसी भी दृष्टि से विचार करें तो भी वृषभदेव और महादेव ये एक ही हैं। जैन लोग वृषभदेव आदिनाथ कहते हैं और हिंदू लोग महादेवजी को आदिनाथ मानते हैं, दोनों का स्थान कैलाश पर्वत ही है।" लेखक का कहना है कि इस
34 जून - जुलाई 2007 जिनभाषित
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विवेचना से वृषभनाथ का परिवर्तन मूलस्वरूप में फरक करके महादेव कैसे बनाया है यह पाठकों के ध्यान में आया ही होगा; और यह काम हिंदुओं का आज का नहीं है, इसका उत्कृष्ट और ताजा उदाहरण मतलब पुने के चतुर्भुज लोकमान्य तिलक । लेखक की यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि जैन तीर्थंकर का हिंदूकरण कैसे किया गया है।
यूँ तो, यदि भगवान् ऋषभदेव के बारे में लिखना चाहे तो अनेक पृष्ठे भर जायेंगी और यह भी है कि कम समय में भ. वृषभदेव के बारे में विस्तार से लिख भी नहीं सकते हैं । यहाँ थोड़ी बहुत जानकारी दी है, आगे कभी और विस्तार से लिखने का प्रयत्न करूँगा । इस लेख को लिखने का आशय यह है कि जैनों को भगवान् ऋषभदेव की महिमा मालूम हो और साथ में जैनों को अपने आदर्श पर स्वाभिमान बढ़े। भगवान् ऋषभदेव इस विश्व के श्रेष्ठ और आदर्श महापुरुष हैं और उन्होंने सर्वप्रथम प्रकृति के नियमों को बताया है यह पढ़कर किस जैन का मस्तक गर्व से ऊँचा नहीं उठेगा ? भगवान् ऋषभदेव पर और विशेष अनुसंधान करने की आवश्यकता है, क्या विद्वान् चौपड़े साहब के तर्कों और उनके संशोधन को ध्यान से पढ़े और विशेष संशोधन का कार्य करें तो आगामी समय में बहुत सी नई बातें सामने आने की उम्मीद है। इच्छा और लगन के साथ काम करने की आवश्यकता है और साथ में विश्व स्तर पर भगवान् ऋषभदेव का प्रचार प्रसार होना चाहिए । एक और बात यह है कि, जिसतरह हम भगवान् महावीर की जयंती मनाते हैं उसीप्रकार भगवान् ऋषभदेव की जयंति मनाये तो बहुत अच्छा रहेगा । सुना जाता है कि महावीर जयंती के राष्ट्रीय अवकाश को खारिज किया गया है, एक ही तो राष्ट्रीय अवकाश प्राप्त था वह भी खत्म हो गया, ऐसा होना नहीं चाहिए। कम कम एक अवकाश तो हमें मिलना चाहिए चाहे भगवान् ऋषभदेव की जन्म जयंती पर मिले या भगवान् महावीर के जन्म जंयती पर । मेरे अभिप्राय से दोनों ही जयंतियाँ महत्त्वपूर्ण हैं और इनके लिए विशेष उत्साह होना चाहिए। दोनों के लिए राष्ट्रीय अवकाश मिले तो कहना ही क्या। जैन समाज को इस विषय पर विशेष ध्यान देना होगा ।
सारे विश्व में भगवान् ऋषभदेव की पूजा हो, उनका आदर हो इसी भावना से यह लेख समाप्त करता हूँ ।
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श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर (जयपुर) राजस्थान
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