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पहरा रहता था। खंजाची होने के कारण बांठिया जी का । या 'राजद्रोह' और उसका प्रतिफल था सजाए मौत। बांठिया परिचय सभी बड़े राज्याधिकारियों से था। आपसी चर्चा | जी से प्राप्त इस सहायता से क्रांतिकारियों के हौसले बुलंद के दौरान अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर अत्याचार की बातें भी हो गये और अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिये पर रानी होती थी। अत्याचार की घटनाओं को सुन-सुन कर बांठिया | लक्ष्मीबाई लड़ते-लड़ते शहीद हो गयी। रानी लक्ष्मीबाई जी का हृदय तड़प उठता था और देश के लिए कुछ करने | के बलिदान के चार दिन बाद ही २२ जून १८५८ को की भावना बलवती होने लगती थी। उनके दृढनिश्चय और | ग्वालियर में ही राजद्रोह के अपराध में न्याय का ढोंग रचकर मातृभूमि के प्रेम ने रानी लक्ष्मीबाई की क्रांतिकारी सेनाओं | लश्कर के भीड़ भरे सर्राफा बाजार में नीम के पेड़ से को सहायता करने का निर्णय ले लिया।
लटकाकर अमरचन्द बांठिया को फांसी दे दी गई और १८५७ की क्रांति के समय रानी लक्ष्मीबाई, उनके | कठोर चेतावनी के रूप में उनका शरीर तीन दिनों तक सेना नायकराव साहब, तात्याटोपे आदि क्रांतिकारी ग्वालियर लटकाये रखा गया। ग्वालियर के सर्राफा बाजार में अमरचन्द के रणक्षेत्र में अंग्रेजों के विरूद्ध डटे हुए थे परंतु लक्ष्मीबाई | बांठिया का एक स्टेच्यू स्थापित किया गया है। इसप्रकार के सैनिकों और ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों को कई माह | इस महानायक ने १८५७ के स्वातन्त्र्य समर की मशाल से वेतन नहीं मिला था, न ही राशन-पानी का समुचित | जलाये रखने के लिए कुर्बानी दे दी। प्रबंध हो सका था। तब बांठिया जी ने अपनी जान की १८५७ की इस १५० वीं जयंती पर इन सपूतों पर परवाह न करते हुए क्रांतिकारियों की मदद की और | जैन समाज ही नहीं संपूर्ण भारतीय समाज गर्व करता है राजकोष का द्वार खोल दिया। सैनिकों को पाँच-पाँच माह | और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देता है। का वेतन वितरित किया गया। बांठिया जी के इस साहसिक
शिक्षक आवास ६, निर्णय के पीछे उनकी अदम्य देशभक्ति की भावना छिपी
कुंदकुंद जैन महाविद्यालय परिसर, हुई थी परंतु अंग्रेजी शब्दकोश में इसका अर्थ था 'देशद्रोह'
खतौली २५१२०१ (उ.प्र.)
भगवान् मल्लिनाथ जम्बूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र के बंग देश में मिथिला नगरी का स्वामी इक्ष्वाकुवंशी, काश्यपगोत्री, कुम्भ नाम के राजा राज्य करते थे, प्रजावती नाम की उनकी रानी थी। उस महारानी ने मगशिर शुक्ल एकादशी के दिन अपराजित विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। अरनाथ तीर्थंकर के बाद एक हजार करोड़ वर्ष बीत जाने पर भगवान् मल्लिनाथ का जन्म हुआ था। उनकी आयु इसी में शामिल थी पचपन हजार वर्ष की उनकी आयु थी, पच्चीस धनुष ऊँचा शरीर था और सुवर्ण के समान उनके शरीर की कांति थी। कुमारकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान् मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाह के लिए सजाया गया है। इस प्रकार नगर की साज सज्जा देखकर उन्हें पूर्वजन्म के अपने अपराजित विमान का स्मरण आ गया। जातिस्मरण होने से वैराग्य को प्राप्त कुमार मल्लिनाथ स्वामी ने अगहन शुक्ल एकादशी के दिन सांयकाल के समय श्वेत वन में पहुँच कर बेला का नियम ले तीन सौ राजाओं के साथ जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। महामुनि मल्लिनाथ पारणा के दिन मिथिलापुरी में प्रविष्ट हुए। वहाँ सुवर्ण के समान कान्ति वाले नन्दिषेण राजा ने उन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये छद्मस्थ अवस्था के छह दिन व्यतीत हो जाने पर वह उसी दीक्षा वन में अशोक वृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यानलीन हुए और मगशिर शुक्ल एकादशी के दिन प्रात:काल के समय घातिया कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें चालीस हजार मुनि, पचपन हजार आर्यिकायें, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। समस्त आर्य क्षेत्रों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए जब उनकी आयु एक माह की शेष रह गई तब वे सम्मेदाचल पर पहुँचे और वहाँ पाँच हजार मुनियों के साथ उन्होंने प्रतिमायोग धारण किया तथा फाल्गन शक्ल सप्तमी के दिन संध्या के समय अघातिया कर्म नष्ट कर मोक्ष प्राप्त किया।
मुनि श्री समतासागरकृत शलाकापुरुष' से साभार
जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 39
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