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कहा है
जीवों के खाने में आ जाने से मांसभक्षणवत दोष भी होता संयम शन्यात श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः। २३७ । ही है। इस संबंध में शास्त्रों के निम्न प्रमाण दृष्टव्य हैं
की टीका | (१) श्री सर्वोपयोगी श्लोक संग्रह पृष्ठ १६६ पर अर्थ-संयम शून्य, श्रद्धा व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती।। प्रश्नकर्ता- सौ. अनिता जैन, कोल्हापर
पतंति वहवो जीवा, अन्न भाजन वनिषु। प्रश्न- गृहस्थ श्रावक का कितना धन दान में देना मांस दोषस्तथा हिंसा, तस्मात् त्याज्यं निशा शनं।४६ । श्रेष्ठ है?
अर्थ- रात्रि में अन्न के बर्तन तथा अग्नि आदि में समाधान- इस प्रकरण में श्री 'धर्मरत्नाकर' पृष्ठ | अनेक जीव पड़ते है। जिससे मांस खाने का दोष तथा हिंसा ३६१ पर इस प्रकार कहा है
होती है। अतः रात्रि भोजन छोड़ने के योग्य है। ४६। तूर्यांशो वा षडंशो वा, दशांशो वा निजार्थतः।
(२) श्री पदमकृत श्रावकाचार में रात्रि भोजन के दीयते या तु सा शक्ति वर्यां मध्या कनीयसी। १४३१-२५। | संबंध में पृष्ठ ४३ पर इस प्रकार कहा है
अर्थ- अपनी दैनिक आय में से चतुर्थ भाग (२५%) रात्रै भोजन जो कीजीइए, तो ते जीव हुये भक्ष। छठा भाग (१७%) अथवा दसवें भाग (१०%) का जो मांस आहार सम ते सहीए, दूसण दीसे समक्ष । ५६ । सत्पात्रदानादि में सदुपयोग किया जाता है, उसे यथाक्रम अर्थ- रात्रि भोजन जो करता है वह उन त्रस जीवों से उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य शक्ति जानना चाहिये। | को भी खा लेता है। अतः वह रात्रि भोजन मांस आहार
इसी ग्रंथ के पष्ठ ४४ पर उपर्यक्त प्रकार ही लिखा | के समान ही है। उसीतरह का दषण सामने ही दिखता है। है। साथ में यह भी लिखा है कि जो पुरुष लक्ष्मीवान् होकर (३) रात्रि भोजन का वर्णन करते हये 'दौलतराम भी इस प्रतिशत से कम दान देता है उसे धार्मिक जन दाता | कृत क्रियाकोष' में पृष्ठ ३८२ पर इस प्रकार कहा हैलोगों में कुछ भी नहीं गिनते।
मांस अहारी सारिखे, निशि भोजी मतिहीन। प्रश्न- संकल्प और विकल्प में क्या अंतर होता
जनम या पाप तें,लहें कुगति दुखदीन। ९८ ।
अर्थ- जो बुद्धिहीन पुरुष रात्रि भोजन करते हैं वे समाधान- श्री परमात्म प्रकाश गाथा १६ की टीका | मांसाहारी के समान ही हैं। इस पाप के कारण वे जन्ममें श्री ब्रह्मदेव ने इस प्रकार कहा है
जन्म में दुःखी और दीन होते हुये कुगति को प्राप्त करते "बहिर्द्रव्यविषये पुत्रकलत्रादि चेतनाचेतनरुपे ममेदमिति स्वरूपः संकल्पः, अहं सुखी दुःखीत्यादि चित्त गतो (४) 'लाटी संहिता' में रात्रि भोजन के संबंध में हर्षविषादि परिणामो विकल्प इति।"
इस प्रकार कहा हैअर्थ- बहिरंग वस्तु पत्र. स्त्री आदि चेतन तथा
नियन्ते जन्तवस्तत्र झंपापातात्समक्षतः। अचेतन के विषय में, 'ये मेरे हैं' ऐसा ममत्व परिणाम
तत्कलेवर सम्मिश्रं तत्कुतः स्यादनामिषम्। ५२। संकल्प कहलाता है। तथा मैं सुखी, मैं दुःखी इत्यादि चित्त
अर्थ- वह त्रस जीवों का समुदाय जरा सी हवा का में होने वाले हर्ष विषादादि रूप परिणामों को विकल्प कहा
झकोरा लगने मात्र से ही अपने देखते-देखते मर जाता है जाता है।
तथा उनका कलेवर उड-उड कर सब भोज्य में मिल जाता इस प्रकार इन दोनों में अंतर पाया जाता है।
है। ऐसी हालत में रात्रि भोजन का त्याग न करने वालों प्रश्नकर्ता- श्री अरविंद कुमार जैन सी.ए., इंदौर
के मांस का त्याग कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता प्रश्न- क्या शास्त्रों में रात्रि भोजन करने को मांस
अर्थात् उनके मांस भक्षण के समान ही दोष लगता है। भक्षणवत् कहा है या वर्तमान में कुछ साधु तथा विद्वान,
जैनों के कुलाचार में इसीलिये रात्रि भोजन त्याग अतिशयोक्ति करते हुये कहते हैं?
माना गया है। उपरोक्त प्रमाणों पर अच्छी तरह गौर करके समाधान- श्रावक के आचरण के संबंध में, | पढ़ने और चिंतन के बाद, जैन मात्र को रात्रि भोजन का श्रावकाचार ग्रंथों में भलीप्रकार वर्णन किया गया है। रात्रि | त्याग अवश्य ही करना चाहिये। भोजन करने में त्रस जीवों की हिंसा भी होती है और त्रस
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा - 282002 (उ.प्र.)
जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 41
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