Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 38
________________ नरेन्द्र, दोहा, रोला, चाल व हरिगीतिका के कुल ९६ छन्द | मुनिदशा का वर्णन करते हुए मोक्षदशा का वर्णन किया हैं जो भाव के साथ-साथ कलात्मक दृष्टि से भी अतीव | है और अंत में रागरूपी आग को त्याग करने की सीख उत्कृष्ट हैं। जैन धर्म के मर्म का सार यह काव्य ब्रजभाषा | देते हुए ग्रंथ-समापन की सूचना है। मिश्रित खड़ी बोली में है। प्रस्तुत ग्रंथ की रचना प्राचीन | छहढाला एक समीक्षा- छहढाला की पहली ढाल विद्वान पण्डित बधजन की छहढाला कति के आधार पर | में 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' के आद्य तीन अध्यायों का सार संक्षेप दूसरी ढाल में आ गया है। इसीप्रकार नौवें अध्याय पूर्ण हुई। का प्रारंभ "आत्मा का हित मोक्ष ही है" से हआ है उसी इस कालजयी रचना में संसारी जीव के भ्रमण की | प्रकार तीसरी ढाल का प्रारंभ "आत्मा को हित है सुख कथा है तथा किस प्रकार यह जीव संसार रूपी समुद्र को | सो सुख आकुलता बिन कहिए" पंक्ति से हुआ है। पार कर के मोक्ष पद प्राप्त कर सकता है- इसका मार्ग छहढाला और मोक्षमार्ग प्रकाशक की इस समानता भी सुगमता से बताया गया है। इस कृति में ६ ढाल | की विवेचना से एक महत्त्वपूर्ण तथ्य इंगित होता है कि (अधिकार) हैं। सर्वप्रथम "वीतराग विज्ञान" को "तीन | छहढाला की तीसरी, चौथी, पाँचवी एवम् छठवीं ढाल का भुवन में सार" एवम् “शिवस्वरूप शिवकार" बताते हुए आश्रय लेकर उसका विस्तार करते हुए इस अपूर्ण मोक्षमार्ग "त्रियोग" से नमस्कार किया गया है। तत्पश्चात् पहली | प्रकाशक ग्रंथ का दूसरा भाग लिखकर पूर्ण करने का ढाल में मोक्षमार्ग एवम् सम्यक् दर्शन का विशेष कथन | दायित्व कोई शोधार्थी मनीषी विद्वान् ले ले तो जिज्ञासुओं है। चौथी ढाल में सम्यक् ज्ञान एवम् एक देश चरित्र का की मोक्षमार्ग के स्वरूप की पिपासा संतप्त हो सकती है। वर्णन है। पाँचवीं ढाल में वैराग्य जननी बारह भावनाओं माजिक मूर्तिकुंज, कमला बाजार, का चिंतन है और छठी ढाल में सकल चारित्र अथवा सासनी-२०४२१६ (हाथरस) उ.प्र. भगवान् अरनाथ जम्बूद्वीप संबंधी भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश की हस्तिनापुर नगरी में सोमवंशी, काश्यपगोत्री महाराजा सुदर्शन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम मित्रसेन था। उस महारानी ने मगसिर शुक्ला चतुर्दशी के दिन पुष्प नक्षत्र में जयन्त विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। श्री कुन्थुनाथ तीर्थंकर के तीर्थ के बाद जब एक हजार करोड़ वर्ष कम पल्य का चौथाई भाग बीत गया तब श्री अरनाथ भगवान् का जन्म हुआ। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। भगवान् अरनाथ की आयु चौरासी हजार वर्ष की थी. तीस धनुष ऊँचा उनका शरीर और सवर्ण के समान उनकी कान्ति थी। कुमार अवस्था के जब इक्कीस हजार वर्ष बीत गये तब उनके पिता ने उन्हें राज्य सौंप दिया। वे इक्कीस हजार वर्ष तक मण्डलेश्वर राजा के रूप में शासन करते रहे। आयुधशाला में चक्ररत्न प्रगट हो जाने पर चक्रवर्ती के योग्य संपूर्ण वैभव उन्हें प्राप्त हुआ। इस प्रकार भोगोपभोग रूप सुख का अनुभव करते हुए आयु का तीसरा भाग अर्थात् जब अट्ठाईस हजार वर्ष की आयु शेष थी तब किसी एक दिन शरद ऋतु के मेघों का विलय हो जाना देखकर वे वैराग्य को प्राप्त हुए। जिससे उन्होंने अपने अरविन्द नामक पुत्र के लिए राज्य-भार सौंप दिया और मगशिर शुक्ला दशमी के दिन सहेतुक वन में तेला का नियम लेकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण कर ली। पारणा के दिन चक्रपुर नगर में नृपति अपराजित ने उन्हें आहार दान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। इस तहर छदमस्थ अवस्था के सोलह वर्ष और बीत जाने पर वे मुनिराज अपने ही दीक्षा वन में कार्तिक शुक्ला द्वादशी के दिन बेला का नियम लेकर आम्र वृक्ष के नीचे ध्यानलीन हुए और घातिया कर्म नष्टकर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। भगवान् के समवशरण की रचना हुई जिसमें पचास हजार मुनि, साठ हजार आर्यिकायें, एक लाख साठ हजार श्रावक, तीन लाख श्राविकायें, असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। अनेक देशों में विहार कर धर्मोपदेश देते हुए जब एक माह की आयु शेष रह गई तब वे भगवान् सम्मेदाचल पर पधारे और वहाँ एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारण कर चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रात्रि के पूर्व भाग में अघातिया कर्मों का क्षयकर मोक्ष प्राप्त किया। मुनि श्री समतासागरकृत 'शलाकापुरुष' से साभार 36 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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