Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ को भेंट करें। में एकांत में स्थापन कर दे।* सुन्दर वस्त्र, अंगूठी, हार, फल, पत्र पुष्पादि भेंट | इन उद्धरणों से सहज ही जाना जा सकता है कि की सामग्री को 'ओम निधीश्वर' आदि ऊपर लिखे मंत्र | प्राचीन काल में भगवान् की प्रतिमा बाजारु खरीद बेच की को बोलते हुए भद्रासन के आगे रखें। उस सब सामग्री | चीज नहीं थी जिस शिला से वह बनाई जाती थी वह भी को शिल्पी ग्रहण करे। आजकल इनमें से वस्त्र, शय्या, खान से बड़े विधि-विधान से लाई जाकर मंदिर में रक्खी आसन आदि चीजों को कोई-कोई प्रतिष्ठाचार्य पण्डित ले जाती थी और वहीं पर सलावट आकर उसे बनाता था। लेते हैं या यह सामग्री मेला कराने वाली पंचायत या यजमान बनाने वाला शिल्पी भी शुद्ध आचार-विचार का धारी होता के अधिकार में रह जाती है। पहिले इसके लेने का नियोग था और वह समाज में सम्मान की दृष्टि से देखा जाता शल्पी का था जैसा कि आशाधर जी ने कहा है। था। यहाँ तक कि प्रतिष्ठा की विधियों में भी उसे साथ गर्भावतार की विधि में शिल्पी सम्बन्धी एक और | | रखा जाता था और प्रतिष्ठोपयोगी कितने ही बहुमूल्य पदार्थों उल्लेख आशाधरजी ने निम्न प्रकार किया है की प्राप्ति के अधिकार भी उसे मिले हुए थे जिससे वह "तामेव रहसि पुरानिरूपितप्रतिष्ठे यामह प्रतिमा नतनसितसद वस्वप्रच्छादितां परखचरतटकिकाकरविश्वकर्मा | मालामाल हो जाता था। इसके अतिरिक्त और भी परस्कार सौधर्मेन्द्रो महोत्सवेनानीय सविशद्धभद्रासनगर्भपद्मे | उस यजमान द्वारा । जताया । उसे यजमान द्वारा मिला करते थे। नेवेशयेत्।" जिस मूर्ति को माध्यम बनाकर हम अपने आराध्य जिसके आगे टांकी हाथ में लेकर प्रतिमा घड़नेवाला | देव की आराधना करके अपना कल्याण करते हैं- इहलोक शल्पी चल रहा है ऐसा सौधर्मेन्द्र पूर्व कथित उसी प्रतिष्ठेय | परलोक सुधारते हैं उस मूर्ति को बाजारू चीज बना देने जनप्रतिमा को नये सफेद उत्तम वस्त्र से ढककर और | से क्या उसका गौरव रहेगा, यह प्रश्न काफी गम्भीर और महोत्सव के साथ लाकर पवित्र भद्रासन पर कमल के मध्य | विचारणीय है। * आचार्यकल्प पं. टोडरमलजी के साथी विद्वद्वर पं. । है सो सर्व दोषां ने छोड़ सम्पूर्ण गुण सहित यथाजात स्वरूप निपुणता रायमल्लजी कृत 'ज्ञानानन्द श्रावकाचार' के पृष्ठ १०२-१०३ पर भी | दोय चार पांच सात वर्ष में होय, एक तरफ तो जिन मंदिर की पूर्णता मूर्ति निर्माण के विषय में इसप्रकार वर्णन है - होय और एक तरफ प्रतिमाजी अवतार धरे। 'आगे प्रतिमा का निर्मापण के अर्थ खान जाय पाषाण लावे पीछे घने गृहस्थाचार्य पंडित अरु देश-देश का धर्मी ताकू ताका स्वरूप कहिये हैं- सो वह गृहस्थी महा उछाव सूं खान जावे | प्रतिष्ठा का मुहुर्त ऊपर कागज दें दे घना हेत सू बुलावे। सर्व संघ खान की पूजा करे। पीछे खान को न्योत आवे अरु कारीगर ने मेल | को नित प्रति भोजन होय और सर्व दुःखित को जिमावे, कोई जीव आवे सो वह कारीगर ब्रह्मचर्य अंगीकार करे, अल्प भोजन ले, उज्ज्वल | विमुख न होय रात्रि दिवस ही प्रसन्न रहे। वस्त्र पहिरे, शिल्पशास्त्र का ज्ञानी घना विनय तूं टांकी करि पाषाण | पीछे भला दिन भला मुहुर्त विषे शास्त्रानुसार प्रतिष्ठा होय। की धीरे-धीरे कोर काटे। घनो दान बटे इत्यादि घनी महिमा होय। ऐसी प्रतिष्ठी प्रतिमाजी पूजना पीछे वह गृहस्थ गृहस्थाचार्य सहित और घना जैनी लोग, | योग्य है। बिना प्रतिष्ठी पूजना योग्य नहीं।' कुटुम्ब परिवार के लोग गाजा-बाजा बजाते मंगल गावते जिनगुण के | सारे देश में प्रतिवर्ष कितनी ही पंचकल्याणक प्रतिष्ठायें होती स्रोत पढ़ते महा उत्सव सूं खान जाय। पीछे फेरि बांका पूजन कर | हैं और उनमें १०-२० नहीं किंतु सैकड़ों की संख्या में जैन मूर्तियों बना चाम का संजोग करि महामनोज्ञ रूपा सोना के काम का महा | की प्रतिष्ठा होती है। लेकिन ये मूर्तियाँ शास्त्रोक्त विधि से निर्मित्त पवित्र मन कूँ रंजायमान करने वाला रथ विषे कोमली रूई का पहला | कलापूर्ण एवं मनोज्ञ हैं या नहीं इस ओर बहुत कम ध्यान दिया जाता में लपेट पाषाण रथ में धरे। पीछे पूर्ववत् महा उत्सव सूं जिन मंदिर है। प्रस्तुत लेख में विद्वान् लेखक ने मूर्ति निर्माण की शास्त्रोक्त विधि पर विशद प्रकाश डाला है उस पर मूर्ति प्रतिष्ठापकों एवं प्रतिष्ठाचार्यों पीछे एकांत स्थानक विषे घना विनय सहित शिल्पशास्त्रानुसार का ध्यान जाना आवश्यक है। पतिमाजी का निर्मापण करे ता विषे अनेक प्रकार गुण-दोष लिख्या । 'जैन निबन्ध रत्नावली (द्वितीय भाग) से साभार' लावे। जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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