________________
शिलां विभिद्य शस्त्रेण पुनगंधादिभिर्यजेत् । प्रदोषसमये कृत्वागंधैर्हस्तानूलेपनम् ॥ ८१ ॥ फिर उस शस्त्र के द्वारा शिला को काटकर उसकी गंधादि से पूजा करें। तत्पश्चात् रात्रि के पूर्व भाग में गंध द्रव्यों का हाथों में लेपन करके
सिद्धभक्तिं बिधाया दौ मंत्रं मनसि संस्मरेत् । ओम् नमोऽस्तु जिनेन्द्राय ओम् प्रज्ञाश्रवणे नमः ॥८२॥ नमः केवलिने तुभ्यं नमोऽस्तु परिमेष्ठिने । स्वप्ने मे देवि विद्यांगे ब्रूहि कार्य शुभाशुभम् ॥ ८३ ॥ अनेन दिव्यमंत्रेण सम्यग्ज्ञात्वा शुभाशुभम् । प्रातस्तत्र पूनर्गत्वा पूजयेत्तां शिलां ततः ॥ ८४ ॥ और प्रथम ही सिद्धभक्ति का पाठ करके आगे के मंत्र का मन में स्मरण करें। 'ओम् नमोऽस्तु जिनेन्द्राय, ओम् प्रज्ञाश्रवणे नमः। नमः केवलिने तुभ्यं, नमोऽस्तु परमेष्ठिने । स्वप्ने मे देवि ! विद्यांगे !, ब्रूहि कार्यं शुभाशुभं ' । इसका स्मरण करते हुये सो जावे। इस दिव्यमंत्र से स्वप्न में अच्छी तरह शुभाशुभ जानकर यदि कार्य शुभ दीखे तो प्रभात ही फिर वहाँ जाकर उस शिला की पूजा करे ।
यथा कोटिशिला पूर्वं चालिता सर्वविष्णुभिः । चालयामि तथोत्तिष्ठ शीघ्रं चल महाशिले ।। ८५ ।। सप्ताभिमंत्रिता कृत्वा मंत्रेणानेन तां शिलाम् । पीडार्थं प्रतिमार्थं वा रथमारोपयेत्ततः ॥ ८६ ॥ "यथा कोटिशिला ।...' ." यह पूरा श्लोक ही मंत्र है। इस मंत्र से उक्त शिला को ७ बार मंत्रित किये बाद बैठक सहित प्रतिमा को बनाने के लिये उस शिला को रथ में खकर ले चले।
एवमानीय तां सम्यक् त्रिः परीत्य जिनालयम् । कृत्वा महोत्सवं तत्र सुदिने संप्रवेशयत् ॥८७॥ इस प्रकार उस शिला को अच्छी तरह लाकर किसी शुभ दिन में उच्छव करके और जिनालय की तीन प्रदक्षिणा देकर जिनमंदिर में ले जावे।
वहीं शिल्पी को बुलकार उससे उस शिला की मूर्ति बड़ाई जावे। इस सम्बन्ध में आशाधरकृत प्रतिष्ठा पाठ में इस प्रकार लिखा है
सुलग्ने शांतिकं कृत्वा सत्कृत्य वरशिल्पिनम् । तां निर्मापयितुं जैनं बिंबं तस्मै समर्पयेत् ॥ ६१ ॥ सदृष्टिर्वास्तु शास्त्रज्ञो मद्यादि विरतः शुचिः । पूर्णांग निपुण: शिल्पी जिनार्चायां क्षमादिमान् ॥ ६२ ॥ ( अध्याय १ )
14 जून - जुलाई 2007 जिनभाषित
Jain Education International
अर्थ- शांति विधान करके शुभ मुहुर्त में जिनबिंब बनाने के लिये किसी अच्छे कारीगर को सत्कारपूर्वक वह शिला सुपुर्द कर देवे । वह कारीगर तेज नजर का, वास्तु शास्त्र का ज्ञाता, मद्यादिका त्यागी, पवित्र, पूर्णांगी, शिल्पकाम में निपुण और क्षमादि का धारी, अक्रूर परिणामी होना चाहिये। ऐसा शिल्पी जिनबिंब बनाने के योग्य होता है।
पाठक देखेंगे कि जिनप्रतिमा बनाने के कहाँ तो पूर्व काल के विधि-विधान और कहाँ आज की प्रथा, दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है। प्रतिमा निर्माणार्थ पाषाण लाने की विधि तो दूर रही आजकल तो इतना भी विचार नहीं किया जाता कि जिस मूर्ति को हम प्रतिष्ठार्थ ले रहे हैं उसका घड़ने वाला शिल्पी कहीं मद्यमांसाहारी तो नहीं है? बस बाजार बिकती चीज खरीद की और प्रतिष्ठा में
रख दी ऐसी मूर्तियों में चमत्कारों की आशा करना मृगमरीचिका है । पाषाण को भगवान् बनाना कोई बच्चों का खेल नहीं है । पूर्वकाल में भगवान् की मूर्ति घड़ने वाले सलावट भी ऐसे विचारवान् होते थे कि वे अपना खानपान शुद्ध रखते थे और पवित्र रहते थे और हम परमेश्वर की मूर्ति घड़ने वाले हैं इस बात से अपने आप में गौरव का अनुभव करते थे। इसी से आशाधारजी ने आकर - शुद्धि का वर्णन करते हुए जन्मकल्याणक में भगवान् का प्रथम धूली कलशाभिषेक सूत्रधार (शिल्पी) के हाथ से कराना लिखा है। ऐसे शिल्पियों का सन्मान भी उस जमाने में खूब किया जाता था । उनके सन्मान का उल्लेख भी आशाधरजी ने उक्त कलशाभिषेक के कथन में किया है। इन्होंने ही प्रतिष्ठाविधि में गर्भकल्याणक के प्रसंग में एक और उल्लेख किया है
सार्वर्तुकानि वरवस्त्रफलप्रसून शय्यासनाशनविलेपन मंडनानि । तत्तस्क्रियोपकरणानि तथेप्सितानि तीर्थेशमातुरुपदी कुरुतां धनेशः ॥ २० ॥ ( अध्याय ४ )
ओम् निधीश्वर जिनेश्वरमात्रे भोगोपभोगान्युपनयोपनयेति स्वाहा । चारुवस्त्र मुद्रिकाहार फल पत्रपुष्पादिकं पीठाग्रे प्रतिष्ठयेत् । तच्च सर्वं विश्वकर्मा गृहीयात् ।
अर्थ- सब ऋतुओं के उत्तम वस्त्र, फल, पुष्प, शय्या, आसन, भोजन, विलेपन, मंडन तथा और भी उनउन क्रियाओं की साधक इच्छित सामग्री को कुबेर जिनमाता
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org