Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 14
________________ नगर के चलायमान हाने अथवा गच्छनाश का निमित्त | की समाप्ति आदि का इष्ट होना), ३. शक्ति का अभाव उपस्थित होने पर साधु जन यह समझ कर देशान्तर को | (रोग आदि के कारण उस समय गमन की शक्ति न होना) चले जाते हैं कि वहाँ ठहरने से रत्नत्रयकी विराधना होगी। और ४. वैयावत्यकरण (दसरे बीमार साध की सेवा के आषाढी पौर्णमासी के बीत जाने पर श्रावण की प्रतिपदा | लिये रुक जाना)। कमती दिन वाले आदि तिथियों में बीस दिन तक जो अवस्थान हो वह सब यद्यपि स्पष्टरूप से बतलाये नहीं गये परन्तु प्रकारान्तर से हीन काल समझना चाहिए। ये ही जान पड़ते हैं। इन कारणों से उस स्थान पर पहँचने इस स्वरूप कथन पर से निम्न बातें फलित होती | में कुछ विलम्ब का होना संभव है जहाँ चौमासा करना इष्ट हो। १. चातुर्मास का यह नियम महाव्रती श्रमणों निग्रंथ | ५. चातुमार्स का नियम ग्रहण करने के बाद कुछ साधुओं के लिये है, अणुव्रती श्रावकों अथवा ब्रह्मचारियों कारणों से साधु अन्यत्र भी जा सकते हैं अथवा उन्हें रत्नत्रय के लिये नहीं। चातुर्मास के जो हेतु 'महान् असंथम' तथा | की रक्षा के लिये जाना चाहिये। वे कारण हैं- १. मरी 'आत्मविराधना' आदि कहे गये हैं उन का भी सम्बन्ध | पड़ना, २. दुर्भिक्ष फैलना, ३. ग्राम या नगर का चलायमान श्रमणों से ही ठीक बैठता है। होना (भूकम्प, राष्ट्रभंग या राजकोपादि कारणों से जनता २. चातुर्मास का उत्सर्ग (सर्वसाधारण) काल १२० । का नगर ग्राम को छोड़ छोड़ कर भागना) अथवा ४. अपने दिन का है और वह आषाढी पौर्णमासी से कार्तिकी गच्छ के नाश का कोई निमित्त उपस्थित होना। और इसलिये पौर्णमासी तक रहता है। चातुर्मास का नियम लेते समय साधु को यह स्पष्ट रूप ३. कुछ कारणों के वश अधिक तथा कमती दिनों से संकल्प कर लेना उचित मालूम होता है कि यदि ऐसा का भी चौमासा होता है। अधिक दिनों वाले चौमासे का | कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा तो मैं इतने दिनों तक यहाँ निवास उत्कृष्ट काल आषाढ सुदि दशमी से प्रारंभ होकर कार्तिकी | करूँगा। हिन्दुओं के यहाँ भी 'असति प्रतिबन्धे तु' शब्दों पौर्णमासी के बाद तीस दिन तक तीसवें दिन की समाप्ति के द्वारा संकल्प में ऐसा ही विधान पाया जाता है। जैसा तक है। और कमती दिनों वाले चौमासे का हीनकाल | कि 'अत्रि' ऋषि के ऊपर उद्धृत किये हुए वाक्य से प्रकट आषाढी पौर्णमासी के बाद श्रावण की प्रतिपदासे बीस दिन | है। के भीतर किसी वक्त प्रारंभ होता है। 'अनेकान्त (वर्ष १,किरण ६-७, ४. अधिक दिन के चौमासे के कारण ये हैं-१. वर्षा वैशाख ज्येष्ठ वि.स.१९८७) से साभार' की अधिकता, २.श्रतग्रहण (किसी खास शास्त्र के अध्ययन सहायता स्वीकार श्री अशोक कुमार जी द्वारा अपने पुत्र चि. अंशुल के शुभ विवाह अवसर पर ३५१/- सहर्ष 'जिनभाषित' को प्रदान किये गये। एतदर्थ धन्यवाद। श्री विनोद कुमार जी, मदन लाल जी काला कलकत्ता द्वारा स्व. श्री मती गुणमाला देवी काला की पुण्य स्मृति में ५०१/- सहायता प्राप्त हुई। एतदर्थ धन्यवाद । मोक्ष का काल नियत नहीं है जो मोहरागदोसो णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं। सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेन। अर्थ- जो जिनोपदेश प्राप्त कर मोह, राग और द्वेष का विनाश करता है, वह शीघ्र ही समस्त दुखों से मोक्ष पा लेता है। 12 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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