Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 29
________________ २. अथवा एक या दो मूलगुणों की सर्वथा उपेक्षा कर देता । सन्दर्भ:है, वह मुनि ही नहीं है, अत: वह नमस्कार का पात्र नहीं पडिवज्जदु सामण्णं जाद इच्छसि दुक्खा परिमोक्खं ॥३/१ प्र.सा. है। भावलिंगी मुनि तो २८ मूलगुणों का यथार्थरीति से पालन दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ॥ ३/४२ प्र.सार करते हैं उनके अरिहन्तदेव, निर्ग्रन्थ गुरु व अहिंसामयी धर्म प्रवचनसार ३/४३ का सच्चा श्रद्धान भी है। अतः मोक्षमार्ग में उनकी प्रशंसा अत्थेसु जो ण मुद्वैज्झदि णहि रज्जदि णेव दोस मुक्यादि। समणो जदि सो णियदं खवेदि कम्माणि विविहाणि ॥ मोक्षमार्ग आज भी चल रहा है। पंचम काल के अंत प्रवचनसार ३/४४ तक चलेगा किंतु खेद है कि काल प्रभाव से मोक्षमार्ग पर प्रवचनसार ३/४२ परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। चलने वाले भी कुछ जन परिग्रह पिशाच से पराभूत होकर विज्जदि जदि सो सिद्धिंण लहदि सव्वागमधरो वि॥३/३९ जनसंपर्क को महत्त्व दे रहें हैं जबकि आचार्यपूज्यपाद ने प्रवचनसार लिखा है जस्स परिग्गहगहणं अणं बहुयं व हवइ लिंगस्स।। जनेभ्यो वाक् ततः स्पन्दो मनसश्चित्त विभ्रमाः। सो गरहिउ जिणवयणे परिग्गहरहिओ णिरायारो ॥ सूत्रपाहुड ९ भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनर्योगी ततस्त्यजेत्॥७२॥ जिस वेष में थोडा या बहुत परिग्रह का ग्रहण होता है, वह समाधिशतक निंदनीय है क्योंकि जिनवचन में परिग्रह रहित को ही मुनि कहा लोक संपर्क होने पर वचनालाप होता है उससे भगवती आराधना २३१, ६३८ मूलाचार गा. ७९१,७९५ मानसिक चंचलता होती है और चित्त में विभ्रम होता है।। भगवती आराधना ६३९ इसीलिए योगी जनसंपर्क का त्याग करे। यतेर्मूलगुणाश्चाष्टाविंशतिर्मूलवत्तरोः। शास्त्रकारों ने साधु को उसकी चर्या को स्पष्टरूप नात्राप्यन्यतमेनोनातिरिक्ताः कदाचन। से बताया है। यदि किसी के द्वारा स्वरूप को न समझकर सर्वै रेभिः समस्तैश्च सिद्धं यावन्मुनिव्रतम्। परिग्रह ग्रहण किया जाता है, तो उसके कुफल को वही न व्यस्तैर्व्यस्तमात्रं तु यावदंशनयादपि ॥ ७४३-४४ उत्तरार्द्ध पंचाध्यायी प्राप्त करेगा।१४ मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु परं, दण्डो मूलहरो आगम/शास्त्रों के उक्त कथनों के आधार पर मुनिराजों भवत्यविरतं पूजादिकं वांछतः। के चरणों में यही प्रार्थना करता हूँ कि मूलगुणों निर्दोषरीत्या एकं प्राप्तभरे: पहारमतुलं हित्वा शिरश्छेदकं, रक्षत्यंगुलिकोटिका परिपालन करते हुए मोक्षमार्ग को प्रशस्त करें। ख्याति खण्डन करं कोऽन्येरणे बुद्धिमान् ॥ पद्मनन्दि पं.१/४१ लाभ पूजा की चाह वश अपने नामों से संस्थाओं, क्लाबों, | पंच महव्वय जुत्तो तिहिं गुत्तिहिं जोस संजदो होइ। णिग्गंथ मोक्खमग्गो सो होदि हु वंदणिज्जो ॥ सूत्रपाहुड२० स्कूल, कॉलिज, धर्मशाला, आश्रम आदि के निर्माण योजनाओं वालग्ग कोडिमत्तं परिग्गहगहणं ण होइ साहूणं। में स्वयं को न लगाकर आत्महित करें, जिससे जिन धर्म भुंजेइ पाणिपत्ते दिण्णंण्णं एक्क ठाणम्मि ॥ सूत्रपाहुड १७ की प्रभावना हो। जह जायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्तेसु। जइ लेइ अप्प बहुयं तत्तो पुण णिग्गोदं ।। सूत्रपाहुड १८ . रीडर, संस्कृत विभाग, दि. जैन कालिज, बड़ौत १४. श्री राकेश कुमार जैन विद्यावारिधि (पी.एच.डी.) घोषित श्री दिगम्बर जैन आचार्य संस्कृत महाविद्यालय सांगानेर, जयपुर के प्राचार्य एवं राजस्थान संस्कृत विश्वविद्यालय में श्रमण संकाय के डीन श्री डॉ. शीतलचंद्र जैन के निर्देशन में राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर से श्री राकेश कुमार जैन को महाकवि आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज द्वारा विरचित वीरोदय महाकाव्य के आधार पर 'वीरोदयमहाकाव्यस्य दार्शनिकमनुशीलनम्' विषय पर विद्यावारिधि उपाधि प्रदान की गयी। उक्त उपलब्धि हेतु श्री राकेश कुमार जैन को महाविद्यालय एवं श्री दिगम्बर जैन श्रमण संस्कृति संस्थान, सांगानेर, जयपुर परिवार की हार्दिक शुभकामनाएँ। वीरेन्द्र कुमार जैन -जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52