Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ है कि कोई एक साधु इस मूलगुण में शिथिलता बरतने । मूलगुण है। लगे हैं, जो दिगम्बरत्व के प्रति दुर्गुण है। समाज को चितंन अदन्तधावन, स्थितभोजन और एकभक्त ये तीनों का विषय भी है। मूलगुण साधक की साधना की वृद्धि में परम सहायक क्षितिशयन मूलगुण के पालक साधु जीव बाधा रहित | होते हैं क्योंकि इनसे इन्द्रिय और शरीर पर नियंत्रण तो स्थान में एक करवट से शयन करते हैं। जहाँ स्त्री, पशु, | होता ही है। आलस्य रहित जागृत अवस्था रहती है जिससे नपुंसक एवं असंयमी जीवों का आवागमन न हो तथा जहाँ | ये मूलगुण नैतिक, सामाजिक और वैज्ञानिकरूप से साधक संक्लेश परिणामों के कारणभूत जीव हिंसा, मर्दन, कलह | की आत्मा के प्रभावक हैं। इनके पालन से साधु ज्ञान ध्यान आदि न हो ऐसे चारित्र योग्य प्रासुक भूमि पर गृहस्थ योग्य | तप में वृद्धि को प्राप्त होता है। शय्या और संस्तर से रहित अपने शरीर प्रमाण तृणादि के साधु के उक्त २८ मूलगुण ही होते हैं। न तो २८ संस्तर पर अथवा काष्ठ फलक आदि पर दंड के समान । | से अधिक न कम। सामान्यरूप से ये २८ मूलगुण साधुओं अथवा धनुष के समान एक बगल से सोना भूशयन मूलगुण | के द्वारा जीवन पर्यन्त पालन किये जाते हैं। विशेष यह है इस मूलगुण से विधिवत पालन करने वाला साधु नैतिक | है कि महाव्रत आदि यमरूप अर्थात् सर्वकाल जीवन में कर्तव्य का पालन तो करता ही है साथ में सामाजिकदृष्टि पालन किये जाते हैं किंतु अन्य मूलगुण नियमरूप अर्थात् से सम्मान प्राप्त करता है। इसमें आलस्य का अभाव रहता अल्पकाल की अवधि को लिए हुए होते हैं। सभी मूलगुणों है। निद्रा कम आती है भोगाकांक्षा नहीं रहती है जिससे का पालन आवश्यक है इनमें से किसी भी के बिना निर्दोष आत्मगणों का विकास होता है अतः वैज्ञानिकदृष्टि से मुनिपना सिद्ध नहीं होता। यदि कोई साधु मूलगुणों को इसका महत्वपूर्ण स्थान है। छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणों के परिपालन में ही प्रयत्न इस मूलगुण का कुछ साधु पालन न करके नैतिक | करने वाले तथा निरंतर पूजा आदि की इच्छा रखने वाले सामाजिक और वैज्ञानिक तीनों दृष्टि से धर्म की हानि के | साधु का यह प्रयत्न मूलघातक होगा। कारण कि उत्तरगुणों निमित्त बन रहे हैं। यह सत्य है कि संप्रति शुभ संहनन | में दृढ़ता उन मूलगुणों के निमित्त से प्राप्त होती है। इसीलिए का अभाव होने से पूर्वाचार्यों द्वारा निर्दिष्ट शून्य घर, पर्वत, | यह उनका प्रयत्न उसप्रकार का है जिस प्रकार युद्ध में गुफा, शिखर, वृक्षमूल, नदीतट आदि उपयुक्त वसतिकाओं| कोई मूर्ख सुभट अपने सिर का छेदन करने वाले शत्रु के में रहना शक्य नहीं है किंतु इसका यह अर्थ तो नहीं है | प्रहार की चिन्तन करके केवल अंगुली के अग्रभाग को कि जहाँ स्त्री/पशु/सप्तव्यसनी जनों का आवागमन या खण्डित करने वाले प्रहार से ही अपनी रक्षा का प्रयत्न निवास हो वहाँ उन कोठीयों/ बंगलों में गृहस्थों के डबल | करता है।११ यहाँ स्पष्ट किया गया है कि मूलगुणों को बैड गडे हटाकर चटाई बिछवाकर शय्या बनाकर शयन | निर्दोष रीति से पालना ही श्रेयस्कर है। जो संयत महाव्रत किया जाये। यदि शहर में ही आसन-शयन करना कारणवशात् | आदि से युक्त हैं, वही निर्ग्रन्थ मोक्षमार्गी वंद्य हैं । पूज्य आवश्यक है तो अनदृष्टि देव मंदिर धर्मशालये, शिक्षालय या तीर्थस्थान पर रहकर ध्यान साधना करना चाहिये। वर्तमान में मूलगुणों में शिथिलता ही नहीं देखी जा श्रावकों के आवास में कभी नहीं ठहराना चाहिये क्योंकि | रही है बल्कि कुछ साधु एकाधिक मूलगुणों का पालन वहाँ निवास करने वाले मुनियों से जिनाज्ञा का उल्लंघन | ही नहीं कर रहे हैं, जो मूलगुणों का पालन न करें उनके किया जाता है। विषय में किसी शंकाकार ने शंका की है "यदि कोई मुनि __दाँतोन आदि से दाँत साफ न करना, अदंत धावन | २८ मूलगुणों का ठीक प्रकार से पालन नहीं करता तो मूलगुण है। इससे इंद्रिय संयम होता है। ग्लानि के भाव | सम्यग्दृष्टि को उसे नमस्कार करना चाहिए या नहीं? यदि को उत्पन्न नहीं होने देते हैं। वह एक या दो मूलगुणों का बिलकुल ही पालन नहीं करता अपने हाथ को भोजन का पात्र बनाकर खड़े-खड़े | है, तो फिर वह नमस्कार का पात्र है या नहीं?" इसका निर्दोष आहार लेना स्थिति भोजन नामक मूलगुण है। | समाधान पं. रतनचन्द जैन मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़कर | ग्रंथ के प्रथम भाग के पृष्ठ ७८८ पर इसप्रकार दिया गया केवल एक बार में आहार, पानी लेना एक भक्त नामक | है "जो मुनि २८ मूलगुणों का ठीक-ठीक पालन नहीं करता 26 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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