Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 27
________________ होता है। वातावरण में निर्मलता रहती है। पाँचों समितियाँ । तीर्थंकरों में से किसी भी एक पूज्य आत्मा का मन, वचन, पाँचों महाव्रतों के साथ पलती हैं और समिति तथा महाव्रतों। काय की शुद्धि एवं कृतिकर्म पूर्वक स्तुति तथा नमस्कार का पालन तीनों दृष्टियों से श्रेष्ठ है। वन्दना नामक मूलगुण है। अपने दोष को शोधना तथा प्रगट चेतन अचेतन पदार्थों से उत्पन्न हुए मृदु, कठोर, | करना प्रत्याख्यानमूलगुण है। एक नियत काल के लिए स्निग्ध, रूक्ष, हल्के, भारी, ठण्डे और उष्ण स्पर्श में आनन्द | निश्चित आसन से ध्यान करना और देह ममत्व को छोड़कर एवं खेद नहीं करना स्पर्शनेन्द्रियनिरोध मूलगुण है। आहार | स्थित रहना कायोत्सर्ग नामक मूल गुण है। ग्रहण काल में राग द्वेष नहीं करना रसनेन्द्रिय निरोध है। इन षडावश्यक रूप मूलगुणों के भलीप्रकार से सुगन्ध में राग और दुर्गन्ध में द्वेष नहीं करना घ्राणेन्द्रिय | पालन करने वाले श्रमण नैतिक और सामाजिक महत्व को निरोध मूलगुण है। सचित्त और अचित्त पदार्थों के तथा घट | प्रतिष्ठित करते हैं। समाज में ऐसे साधुओं की प्रतिष्ठा पटादि के वर्ण संस्थान आदि को देखकर उनमें रागद्वेष | विशेष रहती है जो अपने आवश्यकों का पालन करते हैं। नहीं करना चक्षु इन्द्रियनिरोध नामक मूलगुण है। चेतन | वैज्ञानिकदृष्टि से भी इन मूलगुणों का महत्व कम नहीं है अचेतन पदार्थों के प्रिय अप्रिय शब्दों को सुनकर रागद्वेष क्योंकि साधक की साधना में इनसे पवित्रता और आत्मा आदि नहीं करना कर्णेन्द्रिय निरोध मूलगुण है। की विशुद्धि बढ़ती है। इनके अश्क का प्रभाव दूसरों पर पंचेन्द्रिय निरोध का भी नैतिक, सामाजिक एवं | पड़ता है। अन्य लोगों की भावनायें ऐसे साधकों के प्रति वैज्ञानिक महत्त्व है। इन्द्रियों के नियन्त्रित होने के कारण | जुड़ती है। अत: षडावश्यक रूप मूलगुणों का विशेष स्थान श्रमण विषय वासना से दूर रहता है। विषय वासना से दूर | है। रहने का सामाजिक प्रभाव पड़ता है। जिस श्रमण का चरित्र | साधुओं के द्वारा उष्कृष्टतः दो माह में मध्यम तीन निर्मल होता है विषयों में प्रवृत्ति नहीं होती है उसका बहुमान | माह में जघन्य चार माह में उपवास पूर्वक दिन में हाथों रहता है किन्तु जो इन्द्रिय वासनाओं में लिप्त होता है या | से मस्तक, दाढ़ी और मूंछ के बाल उखाड़ना लोच नामक जिसकी प्रवृत्ति अब्रह्म रूप होती है उसकी लोकनिन्दा होती | मूलगुण है। है समाज उसका बहुमान नहीं करती है साथ में उसके इस मूलगुण के माध्यम से धर्म की महती प्रभावना साथ निन्द्य व्यवहार भी होता है। वैज्ञानिकदृष्टि से भी इन्द्रिय | होती है शरीर के प्रति निर्ममत्व जागृत होता है जिससे नैतिक निरोध का प्रभाव होता है जिस साधक की साधना उत्तम | कर्तव्य की पूर्ति होती है। समाज में साधक के वैराग्य गुण होती है इन्द्रियाँ वश में होती हैं पूर्णब्रह्मचर्य का पालन होता की प्रशंसा होती है। सहनशीलता बढ़ती है यह वैज्ञानिक है उसके शरीर की दिव्य आभा जग को आकृष्ट करने | प्रभाव पड़ता है। वाली होती है साथ में चेहरे की दीप्ति के साथ प्रज्ञा भी वस्त्र तृण पर्ण आदि से शरीर को न ढकना और प्रखर रहती है। व्यक्तित्व ज्योतिर्मय बन जाता है। अत: | हार मुकुट आदि से शरीर को अलंकृत नहीं करना नग्नत्व ये मूलगुण तीनों दृष्टियों से श्रेष्ठ हैं। या आचेलक्य नामक मूलगुण है। श्रमण के षड् आवश्यक मूलगुण में गर्भित इसलिए इससे शरीर के प्रति निर्ममता । शीत उष्णवेदना सहने किए गये हैं क्योंकि इनके बिना श्रमणपना ही नहीं रह | की शक्ति का बढ़ना। शरीर से राग कम होने से आत्म सकता है। आधि व्याधि (मानसिक और शारीरिक पीड़ा) | गुणों की संभाल होना नैतिक, सामाजिक और वैज्ञानिक से ग्रस्त हो जाने पर भी इन्द्रियों के वशीभूत न होकर जो | तीनों दृष्टियों से महत्व बढाती हैं। . दिन रात के आवश्यक श्रमणों को करने ही चाहिए उन्हीं | स्नान, उबटन, अंजन आदि का त्याग रखना अस्नान कार्यों को आवश्यक कहते हैं। ये आवश्यकं श्रमणों कर्म | नामक मूलगुण है। यह मूलगुण मल परीषहजय कराता है। सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान | शरीर के प्रति राग घटाता है। जल का अधिक व्यय न और कार्योत्सर्ग छह हैं। करने के कारण जल-कायिक जीवों की विराधना से बचाता जीवन-मरण, लाभ-अलाभ आदि में समान परिणाम | है साथ में त्रस जीवों की विराधना से बचाता है अत: नैतिक, होना सामायिक मूलगुण है। स्तवन शुद्धता पूर्वक तीर्थंकरों | सामाजिक, वैज्ञानिक सभी दृष्टियों से अस्नान मूलगुण का की स्तुति करना चतुर्विंशतिस्तव मूलगुण है। चौबीस | महत्व है। यह अशुभ लक्षण वर्तमान में सुनाई देने लगा जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 25 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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