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स्यात्।'' (सर्वार्थसिद्धि ९/३४) । और आचार्य जयसेन ने प्रमाद को अशुभोपयोग बतलाया है - "मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगपञ्चप्रत्ययरूपाशुभोपयोगेनाशुभो विज्ञेयः ।" (तात्पर्यवृत्ति/प्रवचनसार/ १/९) । प्रमाद के अशुभोपोयोग होने से ही उसके उदय में असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयश: कीर्ति, इन छह पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है । (धवला / ष.खं. / पु.७ / २,१,७ / पृ.११) ।
इस प्रकार सिद्ध है कि शुभोपयोग केवल औदयिक भाव नहीं है, वह सरागसम्यक्त्व की अपेक्षा औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक तथा संयमासंयम एवं संयम की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव भी है। उससे केवल आस्रव-बन्ध नहीं होते, अपितु संवर और निर्जरा भी होती है।
९. मिथ्यादृष्टि के चित्तप्रसादरूप शुभोपयोग से गुणश्रेणिनिर्जरा
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अनादि मिथ्यादृष्टि जब प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख होता है, तब उसे क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और करण, ये पाँच लब्धियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें प्रायोग्य एवं करण लब्धियाँ शुभपरिणाम से ही प्राप्त होती हैं और अधःकरण, अपूर्वकरण एवं अनिवृत्तिकरण ये तीन लब्धियाँ भी शुभपरिणाम ही हैं। इनमें अन्तिम दो करणों से गुणश्रेणिनिर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिखण्डन और अनुभागखंडन ये चार 'आवश्यक' होते हैं (पं. र. च. मुख्तारः व्यक्ति. कृति./ भा. २ / पृ.१०८९) । करणलब्धिरूप शुभपरिणाम से ही दर्शनमोहनीय के तीन खण्ड होते हैं और उन शुभपरिणामों के बल से ही एक खण्ड की मिथ्यात्व - शक्ति आधी और दूसरे की कुछ अंश को छोड़कर लगभग पूरी निरुद्ध हो जाती है तथा वे क्रमशः 'सम्यग्मिथ्यात्व ' और 'सम्यक्त्व' प्रकृति कहलाने लगते हैं- "तदेव सम्यक्त्वं शुभपरिणामनिरूद्धस्वरसं (सर्वार्थसिद्धि / ८ / ९ ) । इस तरह अनादि मिथ्यात्व की निवृत्ति मिथ्यादृष्टि के चित्तप्रसादरूप शुभोपयोग से ही होती है । (त. रा.वा./९/१) । इतना ही नहीं, जिनबिम्ब के दर्शन से जो चित्तप्रसादरूप एवं वीतरागता तथा मोक्ष के प्रति श्रद्धा-भक्तिरूप सम्यक्त्वसदृश प्रशस्तरागात्मक शुभपरिणाम होते हैं, उनके द्वारा अनादि मिथ्यादृष्टि के निधत्ति और निकाचित कर्मों का भी क्षय हो जाता है और प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है, जैसा कि श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है- "कधं जिणबिंबदंसणं पढमसम्मत्तप्पत्तीए कारणं? जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स विमिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो।" (घवला / ष.ख. / पु. ६ / १,९-९,२३ / पृ.४२७-४२८) । आत्मा का चित्तप्रसादरूप (विशुद्धतारूप) परिणाम मोहनीय ( दर्शनमोहनीय एवं चारित्रमोहनीय) के मन्दोदय में होता है, तथापि मोहनीय के उदय से नहीं होता, अपितु उसके उदय में जो प्राबल्य होता है, उसके अभाव से होता है। जैसे अधिक मैले वस्त्र को धोने पर उसका आधा मैल निकल जाता है और आधा लगा रहता है, तो उसमें जो आधी उज्ज्वलता आती है, वह आधे मैल के लगे रहने से नहीं आती, बल्कि आधे मैल के निकल जाने से आती है, वैसे ही आत्मा में अकालुष्यरूप चित्तप्रसाद कालुष्योत्पादक मोहनीय के उदय से नहीं, अपितु उसके उदय का प्रभाव घटने से उत्पन्न होता है ।
इन प्रमाणों के आधार पर आचार्य श्री विद्यासागर जी ने श्रुताराधना शिविर में विद्वानों की शंकाओं का समाधान करते हुए नवीन जैनाभासों की इस धारणा को मिथ्यात्व सिद्ध किया कि शुभोपयोग केवल औदयिक भाव है, अतः उससे मात्र पुण्यप्रकृतियों के आस्रव और बन्ध होते हैं, पाप प्रकृतियों के संवर और निर्जरा नहीं । आचार्यश्री ने अच्छी तरह प्रमाणित कर दिया कि शुभोपयोग क्षायोपशमिक भी होता है, फलस्वरूप उससे आस्रवबन्ध के अलावा संवर - निर्जरा भी होती है । इस तरह वह मोक्ष का साधक है।
10 जून - जुलाई 2007 जिनभाषित
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रतनचन्द्र जैन
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