Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 18
________________ सल्लेखना आत्महत्या नहीं है प्रो. भागचन्द्र जैन 'भास्कर' अभी पिछले दिनों राजस्थान में एक व्रती जैन महिला । उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। ने सल्लेखनापूर्वक अपना व्याधिग्रस्त शरीर का अंत किया। धर्माय तनुविमोचन आहुः सल्लेखनामार्याः॥ इस घटना ने एक संवैधानिक प्रश्न खड़ा कर दिया- क्या -रत्नकरण्ड श्रावकाचार, ५.१ इस प्रकार की इच्छा मृत्यु को आत्महत्या नहीं कहा जा | सल्लेखना आत्महत्या नहीं है सकता है? तथ्य यह है कि जैन परम्परा की सही जानकारी | इस प्रकार के शरीर त्याग में साधक पर आत्महत्या न होने के कारण इस प्रकार का प्रश्न उठाया जा रहा है। का दोष नहीं लगाया जा सकता क्योंकि आत्महत्या करने उसके अनुसार सल्लेखनापूर्वक मरण का वरण करना | वाला किसी भौतिक पदार्थ की अतृप्त वासना से ग्रस्त रहता आत्महत्या नहीं है। इसे समझने के लिए हम निम्न शीर्षकों है। जबकि सल्लेखना व्रतधारी श्रावक अथवा साधु के मन के माध्यम से विचार करेंगे में इसप्रकार का कोई सांसारिक वासनात्मक भाव नहीं रहता सल्लेखना का स्वरूप बल्कि वह शरीरादि की असमर्थता के कारण दैनिक कर्तव्यों सल्लेखना या संथारा साधक श्रावक-श्राविका और | में संभावित दोषों को दूर करने का प्रयत्न करता है। वह ऐसे साधु-साध्वी ग्रहण किया करते है। साधक की यह तृतीय | समय नि:कषाय होकर परिवार और परिचित व्यक्तियों से अवस्था है। यहाँ तक पहुँचते-पहुँचते वह विषय वासनाओं क्षमायाचना करता है और मृत्युपर्यन्त महाव्रतों को धारण से अनासक्त होकर शरीर को भी बंधन मानने लगता है। | करने का संकल्प ले लेता है। तदर्थ सर्वप्रथम आत्मचिन्तन सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के समन्वित आचरण से उसका करता है और उसके बाद क्रमशः खाद्य और पेय पदार्थ मन संसार से विरक्त हो जाता है। उस स्थिति में यदि शरीर छोड़कर उपवासपूर्वक देहत्याग करता है। वह वीतराग हो और इंद्रियाँ अपना काम करना बंद कर देती हैं तो सम्यक् जाता है। उसके मन में न शरीर के प्रति राग रहता है और न आचरण में बाधा उत्पन्न होती है और पराधीनता बढ़ती सांसारिक भोगों की कोई आकांक्षा शेष रहती है। अत: उस चली जाती है। इसलिए उससे मुक्त होने के लिए साधु| पर आत्महत्या का क पर आत्महत्या का कोई दोष लगाने का प्रश्न ही नहीं उठता अथवा श्रावक सल्लेखना या समाधिमरण धारण करता है।। (स.सि.,७.२२; राजवार्तिक,७.२२ आदि)। इसी को संथारा कहा जाता है (महापुराण,३९,१४९, चारित्रसार वस्तुतः आत्महत्या और सल्लेखना में अंतर समझ ४१.२) इस व्रत में निरासक्त होकर आमरण आहार, जलादिक | लेना आवश्यक है। आत्महत्या की पृष्ठभूमि में कोई अतृप्त का पूर्णतः त्याग कर दिया जाता है और धर्माराधना पूर्वक | वासना काम करती है। आत्महत्या करने वाला अथवा किसी शरीर त्याग करने का संकल्प ग्रहण कर लिया जाता है। | भौतिक सामग्री को प्राप्त करने के लिए अनशन करने वाला सल्लेखना का तात्पर्य है-सम्यक प्रकार से काय और | व्यक्ति विकार भावों से जकड़ा रहता है। उसका मन क्रोधादि कषाय को कृष करना, कम करना (लेखन)-सम्यक् काय | भावों से आप्त रहता है जबकि सल्लेखना करने वाले के मन कषायलेखना सल्लेखना। कायस्य बाहयस्याभ्यन्तराणां च में किसी प्रकार की वासना और उत्तेजना नहीं रहती। उसका कषायाणां तत्कारणहायनक्रमेणसम्यक् लेखना सल्लेखना | मन इहलौकिक साधनों की प्राप्ति से हटकर पारलौकिक (सर्वार्थसिद्धि,७.२२; चारित्रसार, पृ.२३; सागारधर्मामृत,१.१२; | सुखों की प्राप्ति की ओर सतत लगा रहता है। भावों की श्रावक प्रज्ञप्ति ३७८ आदि) । यह व्रत विशेषतः उस समय | निर्मलता उसका साधन है। तज्जीवत्तच्छरीरवाद से हटकर लिया जाता है जबकि साधक के ऊपर कोई तीव्र उपसर्ग या | शरीर और आत्मा की पृथकता पर विचार करते हुए शारीरिक आपत्ति आ गई हो अथवा दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था और रोग के | परतंत्रता से मुक्त होना उसका साध्य है। विवेक उसकी कारण आचार-प्रक्रिया में बाधा आ रही हो। ऐसी परिस्थिति | आधार शिला है। अत: आत्महत्या को सल्लेखना किसी भी में यही श्रेयस्कर है कि साधक अपने धर्म की रक्षा के लिए दृष्टि से पर्यायार्थक नहीं कहा जा सकता है। जैन परम्परा में विधिपूर्वक शरीर को छोड़ दे। यहाँ आंतरिक विकारों का | मरण के प्रकारों में यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। आर्त-रौद्र विसर्जन करना साधक का प्रमुख उद्देश्य रहता है- | ध्यान पूर्वक ही आत्महत्या होती है, जबकि सल्लेखना में 16 जून-जुलाई 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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