Book Title: Jinabhashita 2007 06 07
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ ओदइया बंधयरा उवसम-खय-मिस्सया य मोक्खयरा। भावो दु पारिणमिओ करणोभयवज्जिओ होइ॥ (जयधवला / कसायपाहुड / भा.१ / पृ.५ पर उद्धृत) यतः असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के सम्यक्त्व एवं सम्यक्त्व के अंग एवं गुण औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव हैं तथा संयतासंयत, प्रमत्तसंयत एवं अप्रमत्तसंयत गुणस्थान क्षायोपशमिक हैं और सभी प्रायः शुभोपयागात्मक हैं, (केवल ७वाँ कथंचित् शुद्धोपयोगात्मक है) तथा इनमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती है, इससे सिद्ध है कि सम्यग्दृष्टि का शुभोपयोग संवर और निर्जरा का कारण है। श्री वीरसेन स्वामी इसकी पुष्टि करते हुए कहते हैं कि यदि शुभ और शुद्ध परिणामों से कर्मक्षय न हो, तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता- "सुहसुद्धपरिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदो।" (जयधवला / पु०१ / अनुच्छेद २ / पृ.५)। इन गुणस्थानों में मिथ्यात्वादि के अभाव से तन्निमित्तक कर्मप्रकृतियों का संवर भी होता है, अतः शुभोपयोग संवर का भी हेतु ८. संवरनिर्जरा का हेतुभूत शुभोपयोग आस्रव-बंध का भी हेतु सम्यग्दृष्टि का शुभोपयोग क्षायोपशमिक भाव है। क्षायोपशमिकभाव कर्मविशेष के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाविक्षय (स्वमुख से उदय न होने), उन्हीं के सदवस्थारूप उपशम (उदीरणा न होने) तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से निष्पन्न होता है। अत: उदयाभाविक्षय और उपशम से जो विशुद्धता (अकालुष्य) प्रकट होती है, उससे कर्मों का संवर और निर्जरा होती है तथा देशघाती प्रकृतियों के उदय से जो शुभ या अशुभ राग उत्पन्न होता है, उससे आस्रव-बंध होते हैं। इस प्रकार एक ही क्षायोपशमिकभावरूप शुभोपयोग से आस्रव-बंध, संवर और निर्जरा घटित होते हैं। सर्वार्थसिद्धि (९/३) में प्रश्न उठाया गया है कि तप रूप एक कारण से देवेन्द्रादि पद की प्राप्ति और कर्म-निर्जरा ये दोनों कार्य कैसे हो सकते हैं? इसका समाधान करते हुए पूज्यपाद स्वामी कहते हैं- "जैसे अग्निरूप एक पदार्थ विक्लेदन. भस्म और अंगार आदि अनेक कार्य करता है. वैसे तप भी उपर्युक्त अनेक कार्य कर सकता है। देशघाती स्पर्धकों के उदय से असंयतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों को औदयिकभाव नहीं माना जा सकता. क्योंकि देशघाती स्पर्धकों का उदय क्षयोपशम का ही अंग है। उसके बिना क्षयोपशम नाम ही उपपन्न नहीं होता। इन गुणस्थानों को 'शुभोपयोग' संज्ञा शुभोपयोग की बहुलता की अपेक्षा दी गई है, वैसे इनमें कदाचित् अशुभोपयोग भी होता है। (ता.वृ./प्र.सा./गा.३/४८)। आचार्य कुन्दकुन्द ने भावपाहुड में आर्त्त-रौद्र ध्यानों को अशुभ कहा है भावं तिविहपयारं सुहासुहं सुद्धमेव णायव्वं । असुहं च अट्टरुद, सुह धम्मं जिणवरिंदेहिं।। ७६॥ . और आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में कहा है कि आर्त्त-रौद्र ध्यान गृहस्थों के निरन्तर होते हैं और कभीकभी मुनियों के भी होते हैं इत्यार्त्तरौद्रे गृहिणामजस्रं ध्याने सुनिन्द्ये भवतः स्वतोऽपि। परिग्रहारम्भकषायदोषैः कलङ्कितेऽन्तःकरणे विशङ्कम् ॥ २६/४१॥ . क्वचित्क्वचिदमी भावाः प्रक प्राक्कर्मगौरवाच्चित्रं प्रायः संसारकारणम॥ २६/४२॥ पूज्यपाद स्वामी भी कहते हैं कि प्रमत्तसंयतों को निदानज ध्यान छोड़कर अन्य तीन ध्यान प्रमादोदय के उद्रेक (तीव्रता) से कदाचित् हो सकते हैं- "प्रमत्तसंयतानां तु निदानवय॑म् अन्यदातंत्रयं प्रमादोदयोद्रेकात् कदाचित -जून-जुलाई 2007 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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