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यहाँ यह प्रश्न होता है कि देवपूजा आदि कार्य बिना । कृतिकर्म पूरी स्वाधीनता के साथ करना चाहिए, क्योंकि राग के नहीं होते और राग संसार का कारण है, इसलिए कृतिकर्म को आत्मशुद्धि में प्रयोजक कैसे माना जा सकता है ? समाधान यह है कि जब तक सराग अवस्था है, तब तक जीव के राग की उत्पत्ति होती ही है। यदि वह राग लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिए होता है, तो उससे संसार की वृद्धि होती है । किन्तु अरिहन्त आदि स्वयं राग और द्वेष से रहित होते हैं। लौकिक प्रयोजन से उनकी पूजा नहीं की जाती है, इसलिए उनमें पूजा आदि के निमित्त से होनेवाला राग मोक्षमार्ग का प्रयोजक होने से प्रशस्त माना गया है। 'मूलाचार' में भी कहा है कि जिनेन्द्रदेव की भक्ति करने से पूर्वसंचित सभी कर्मों का क्षय होता है। आचार्य के प्रसाद से विद्या और मन्त्र सिद्ध होते हैं। ये संसार से तारने के लिए नौका के समान हैं। अरिहन्त, वीतराग धर्म, द्वादशांग वाणी, आचार्य, उपाध्याय और साधु इनमें जो अनुराग करते हैं, उनका वह अनुराग प्रशस्त होता है। इनके अभिमुख होकर विनय और भक्ति करने से सब अर्थों की सिद्धि होती है। इसलिए भक्ति रागपूर्वक मानी गयी है । किन्तु यह निदान नहीं है। निदान सकाम होता है और भक्ति निष्काम। यही इन दोनों में अन्तर है ।
पराधीन होकर किये गये कार्य से इष्ट फल की प्राप्ति नहीं होती। दूसरा विशेषण तीन प्रदक्षिणा देना है। गुरु, जिन और जिनगृह की वन्दना करते समय तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार करना चाहिए। तीसरा विशेषण तीन बार करना है । प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रिया तीन-तीन बार करनी चाहिए। या एक दिन में जिन, गुरु और जिनगृह आदि की वन्दना कम से कम तीन बार करनी चाहिए, यह इसका भाव है। चौथा विशेषण भूमि पर बैठकर तीन बार अष्टांग नमस्कार करना है । सर्वप्रथम हाथ-पैर धोकर शुद्धमन से जिन मन्दिर में जाकर जिनदेव को बैठकर अष्टांग नमस्कार करें। यह प्रथम बैठकर अष्टांग नमस्कार करना, यह दूसरी नीति है । पुनः नीति है । पुनः उठकर और जिनेन्द्रदेव की प्रार्थना करके उठकर सामायिक दण्डक से आत्मशुद्धि करके तथा कषाय रहित होकर शरीर का उत्सर्ग करके जिनेन्द्रदेव के अनन्त गुणों का ध्यान करते हुए चौबीस तीर्थंकर जिन जिनालय और गुरुओं की स्तुति करके भूमि में बैठकर अष्टांग नमस्कार करना, यह तृतीय नीति है। इस प्रकार एक कृतिकर्म में तीन अष्टांग नमस्कार होते हैं। पाँचवाँ विशेषण चार बार सिर नवाना है । सामायिक दण्डक के आदि में और अन्त में तथा
विधि
त्थोस्सामि दण्डक के आदि में और अन्त में, इस प्रकार एक कृतिकर्म में सब मिलाकर चार बार सिर झुकाकर नमस्कार किया जाता है। छठा विशेषण बारह आवर्त करना है। दोनों
वन्दना के लिये जाते समय श्रीजिनालय के दृष्टिपथ में आने पर 'दृष्टं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि... ' पाठ पढ़े । अनन्तर हाथ-पैर धोकर 'णिसही- णिसही-णिसही' ऐसा तीन बार उच्चारण करके जिनालय में प्रवेश करे। भगवान् जिनेन्द्रदेव के दर्शन से पुलकित-वदन और आत्मविभोर हो उनके सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जावे । अनन्तर दोषविशुद्धि के लिए ईर्यापथ शुद्धि करके यथाविधि सामायिक दण्डक, त्थोस्सामि दण्डक, चैत्य-भक्ति और पंच-गुरु-भक्ति पढ़े। अन्त में देव-वन्दना करते समय लगे दोष के परिमार्जन के लिए यथाविधि समाधि - भक्ति पढ़कर देववन्दना कृतिकर्म को सम्पन्न करे ।
हाथों को जोड़कर और कमल के समान मुकुलित करके दक्षिण भाग की ओर घुमाते हुए ले जाना आवर्त है। इ विधि करने से एक आवर्त होता है। एक कृतिकर्म में ऐसे
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बारह आवर्त होते हैं। सामायिकदण्डक के आदि में तथा त्योस्सामिदण्डक के आदि में और अन्त में तीन-तीन आवर्त होते हैं, इसलिए इनका जोड़ बारह हो जाता है।
इस कृतिकर्म को करते समय कहाँ बैठकर अष्टांग नमस्कार करें, कहाँ खड़े-खड़े ही नमस्कार करें तथा कहाँ मन, वचन और काय की शुद्धि के सूचक तीन आवर्त करें, आदि सब विधि विविध शास्त्रों में बतलायी गयी है। इस विधि को सूचित करनेवाला एक सूत्र षट्खण्डागम के कर्म अनुयोगद्वार में भी आया है। उसके अनुसार कृतिकर्म के छह भेद होते हैं- उसका प्रथम विशेषण आत्माधीन है। अगस्त 2005 जिनभाषित
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'मूलाचार' में अन्य सब विधि 'षट्खण्डागम' के अनुसार कही है। मात्र वहाँ अष्टांग नमस्कार दो बार करने काही विधान है, प्रथम सामायिक दण्डक के प्रारम्भ में और दूसरा त्थोस्सामिदण्डक के प्रारम्भ में । 'हरिवंशपुराण' में भी भूमिस्पर्शरूप दो ही अष्टांग नमस्कारों का उल्लेख है- प्रथम सामायिक दण्डक के प्रारम्भ में और दूसरा त्थोस्सामिदण्डक के अन्त में। इससे प्रतीत होता है कि पूर्वकाल में देशभेद से कृतिकर्म के बाह्य आचार में थोड़ा-बहुत अन्तर भी प्रचलित रहा है। इतना अवश्य है कि देववन्दना के समय
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