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नहीं, शास्त्रीय प्रमाण दीजिएगा?
समाधान : मुनिराज 46 दोष टालकर आहार ग्रहण करते हैं। यदि कोई आर्यिका मुनिराज को आहार दे, और मुनिराज उसे ग्रहण करें तो उसमें दायक दोष लगता है, जैसा कि मूलाचार गाथा 468 में कहा गया है,
अर्थ : धाय, मद्यपायी, रोगी, सूतकसहित, नपुंसक, पिशाचग्रस्त, नग्न, मलमूत्र करके आये हुए, मूर्च्छित, वमन करके आए हुए, रुधिर सहित, दासी, श्रमणी तथा तेलमालिस करने वाली स्त्री आदि यदि आहार देते हैं तो मुनि को उसे ग्रहण करने पर दायक दोष होता है । 468 ॥
इसकी टीका लिखते हुए 'श्रमणी 'शब्द का अर्थ आचार्य वसुनन्दी ने आर्यिका लिखा है। इससे स्पष्ट होता है कि आर्यिका के द्वारा दिया हुआ द्रव्य आहार में लेने से मुनिराज को 'एषणा समिति' के पालन में बाधा रूप, दायक दोष लगता है । अतः आर्यिका को चाहिए कि वह मुनिराज को आहार न दे।
आजकल क्षेत्रों पर दानशालाएं खुलने लगी हैं, जिनमें आहार बनाने वाले रसोईये रखे जाते हैं। वे आहार बनाते भी हैं और देते भी हैं। इन दानशालाओं में दान लेकर पैसा
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सूदी सुंडी रोगी मदयणपुंसय पिसायणग्गो य । उच्चारपडिदवंतरुहिरवेसी समणी अंगमक्खीया ॥ 468 ॥
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एकत्रित किया जाता है। आहारदान देने वाले कर्मचारियों में नवधाभक्ति का अभाव पाया जाता है, अतः इन दानशालाओं का आहार मुनिराज को कदापि नहीं ग्रहण करना चाहिए। शास्त्रीय प्रमाण इसप्रकार हैं।
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26 अगस्त 2005 जिनभाषित
1. उपर्युक्त गाथा नं. 468 में 'वेसी 'शब्द का अर्थ आचार्य वसुनन्दी महाराज ने दासी किया है, अर्थात् यदि नौकर या नौकरानी द्वारा दिये गये आहार को मुनि लेता है तो उसे दायक दोष लगता है ।
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2. आचार्य अकलंक स्वामी ने तो 'राजवार्तिक अध्याय 9 के छठे सूत्र की टीका में स्पष्ट लिखा है कि, 'दीनानाथदानशालाविवाहयजनगेहादिपरिवर्जनोऽपिलक्षिताः '... अर्थ : दीन, अनाथ, दानशाला, विवाह, यज्ञ, भोजन आदि का जिसमें परिहार होता है उसे भिक्षा शुद्धि कहते हैं । अर्थात् दानशाला का भोजन लेने पर भिक्षाशुद्धि नष्ट हो जाती है और 'ऐषणा समिति' नहीं पलती ।
उपरोक्त शास्त्रीय प्रमाणों के अनुसार दानशालाओं का भोजन लेना बिल्कुल उचित नहीं है। ऐसी दानशालाएं खोलना भी गलत है। श्रावकों को चाहिए कि ऐसी दानशालाओं में 'दान देकर, उनको प्रोत्साहित कर, उपरोक्त आगम आज्ञा का उल्लंघन न करें।
सन्तान
श्रीमती सुशीला पाटनी
बुद्धिमान् सन्तति पैदा होने से बढ़कर संसार में दूसरा सुख नहीं ।
वह मनुष्य धन्य है, जिसके बच्चों का आचरण निष्कलंक है। सात जन्म तक उसे कोई बुराई छू नहीं सकती।
सन्तान ही मनुष्य की सच्ची सम्पत्ति है, क्योंकि वह अपने संचित पुण्य को अपने कृत्यों द्वारा उसमें पहुँचाता है। बच्चों का स्पर्श शरीर का सुख है, और कानों का सुख है उनकी बोली को सुनना ।
वंशी की ध्वनि प्यारी और सितार का स्वर मीठा है, ऐसा वे ही लोग कहते हैं जिन्होंने अपने बच्चे की तुतलाती हुई बोली नहीं सुनी है।
पुत्र के प्रति पिता का कर्तव्य यही है कि उसे सभा में प्रथम पंक्ति में बैठने योग्य बना दे ।
माता के हर्ष का कोई ठिकाना नहीं रहता, जब उसके गर्भ से लड़का उत्पन्न होता है। लेकिन उससे भी कहीं अधिक आनन्द उस समय होता है, जब लोगों के मुँह से उसकी प्रशंसा सुनती है।
पिता के प्रति पुत्र का कर्तव्य क्या है? यही कि संसार उसे देखकर उसके पिता से पूछे, “किस तपस्या के बल से तुम्हें ऐसा सुपुत्र मिला है?"
आर. के. मार्बल प्रा.लि., मदनगंज-किशनगढ़
1/205, प्रोफेसर कॉलोनी, हरीपर्वत, आगरा 282002
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